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अयाय-2 संजय उवाच-तं तथा कृपया आवं अुपूााकुलें। ववषीदतं इदं वायं उवाच मधुसूदनः।। 2/1 मधुसूदनः तथा कृपयाववं मधु जैसे मीठे काम के हता {विवबाबा ने } इस कार का से भरे ए, अुपूााकु लें अुपूा ाकुल ने वाले {और देह के सबवधय कᳱ याद म } वषीदतं तं इदं वायमुवाच वषाद करते ए उस {अजुान} को {समझाते ए} यह वचन बोले। भगवानुवाच-कुतवा कमलं इदं वषमे समुपवथतं। अनायाजुं अवयं अकᳱᳶताकरं अजुान।। 2/2 अजुान ववषमे अनायाजुं अवयं इदहे अजुान! असमय म अनायसेववत, वगा म न ले जाने वाली यह अकᳱᳶताकरं कमलं वा कुतः समुपवथतं अपकᳱᳶताकारक मवलनता, {वय होते ए भी} तुझे कहा से आ गई? लैयं मा म गमः पाथा नैतववय उपपधते। ुं दयदौबायं यवा उवि परतप।। 2/3 पाथा लैयं मा म गमः एतत् ववय उपपधते हे पृवीराज! नपुंसक मत बनो। ये तुहारे {कु ल के } योय न परंतप ुं दयदौबायं यवा उवि नह है। हे िुतापक! ु दय कᳱ दुबालता छोड़कर उठो। अजुान उवाच-कथं भीमं अहं सये ों च मधुसूदन। इषुवभः वत योयावम पूजाहौ अᳯरसूदन।।2/4 मधुसूदन भीमं च ों हे कामहंता! भीम {जैसे बाबा} और {महान ाचाया जैसे } ो को संयेऽहवमषुवभः कथवतयोयावम {धमा-}यु म म {ान-}बा से {कटापूवाक} कैसे यु क गा? अᳯरसूदन पूजाहौ हे अᳯरमदान कामाᳯर! {वे मेरे बचपन से ही समाननीय और} पूजनीय ह। गुनहवा वह महानुभावान् ेयो भोुं भैयमवप इह लोके । हवाथाकामान् तु गुवनहै व भुीय भोगान् वधरᳰदधान् ।। 2/5 महानुभावान् गुन् अहवा वह महानुभाव गु को {उनके धमा म अवनय कᳱ मौत} मारने कᳱ अपेा इह लोके भैयं भोुं अवप ेयो इस लोकम भीख मागकर खानाभी अछाहै; {यᳰक मान-मताबा लोलुप&} अथाकामान् गुन् हवा तु इह धन के इछुक गु को {वधारायु जीवनिैली से } मारकर तो यहा वधरᳰदधान् भोगान् एव भुंजीय {वकप के } खून से सने {आमलावन वाले } भोग को ही भोगूगा। न चैतविदः कतरत् नो गरीयो यिा जयेम यᳰद वा नो जयेयुः। यानेव हवा न वजजीववषामतेऽववथताः मुखे धातारााः।। 2/6 च नो कतरत् गरीयः वा यत् जयेम और हमारे वलए या े है ? अथवा ᳰक हम {धमायु म } जीतगे वा यᳰद नो जयेयुः एतत् न वदः अथवा यᳰद {वे} हम जीतगे- यह {भववयफल भी हम} नह जानते। यान् हवा न वजजीववषामः एव वजह मारकर {हम} जीना ही नह चाहते , {मनसा संकप के मूल खून वाले } ते धातारााः मुखैव अववथताः वे {पूंजीवादी संबंधीजन} धृतरा-पु {कौरव} सामने ही खड़े ह। कापायदोषोपहतवभावः पृछावम वां धमासमूढचेताः। यरेयः याविवतं ूवह तमे वियतेऽहं िावध मां वां पिं।। 2/7 कापायदोषोपहतवभावः {पापपूा कवलयुगी मन-बुव कᳱ} दीनता के दोष से ववकृत वभाव वाला,

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  • अध्याय-2

    सजंय उवाच-त ंतथा कृपया आववष्ट ंअश्रुपरू्ााकुलके्षर्।ं ववषीदन्त ंइद ंवाक्य ंउवाच मधसुदूनः।। 2/1

    मधसुदूनः तथा कृपयाववष्ट ं मध ुजसै ेमीठे काम के हन्ता {विवबाबा ने} इस प्रकार करुर्ा स ेभरे हुए,

    अश्रपुूर्ााकुलके्षर् ं अश्रपुूर्ा व्याकुल नते्रों वाल े{और दहे के सम्बवन्धयों की याद में}

    ववषीदन्त ंत ंइद ंवाक्यमुवाच ववषाद करत ेहुए उस {अजुान} को {समझाते हुए} यह वचन बोल।े

    भगवानवुाच-कुतस्त्वा कश्मल ंइद ंववषम ेसमपुवस्तथत।ं अनायाजषु्ट ंअस्तवर्ग्य ंअकीर्ताकरं अजुान।। 2/2

    अजुान ववषम ेअनायाजषु्ट ंअस्तवर्ग्य ंइद ं ह ेअजुान! असमय में अनायसवेवत, स्तवगा में न ल ेजान ेवाली यह

    अकीर्ताकरं कश्मल ं्वा कुतः समुपवस्तथत ं अपकीर्ताकारक मवलनता, {क्षवत्रय होते हुए भी} तझु ेकहााँ स ेआ गई?

    क्लबै्य ंमा स्तम गमः पाथा नतैत्त्ववय उपपद्यत।े क्षदु्र ंहृदयदौबाल्य ं्यक््वा उविष्ठ परन्तप।। 2/3

    पाथा क्लबै्य ंमा स्तम गमः एतत ््ववय उपपद्यत े ह ेपथृ्वीराज! नपुसंक मत बनो। य ेतमु्हारे {कुल के} योर्ग्य

    न परंतप क्षदु्र ंहृदयदौबाल्य ं्यक््वा उविष्ठ नहीं ह।ै ह ेित्रतुापक! क्षदु्र हृदय की दबुालता छोड़कर उठो।

    अजुान उवाच-कथ ंभीष्म ंअह ंसङ्ख्य ेद्रोर् ंच मधसुदून। इषवुभः प्रवत यो्स्तयावम पजूाहौ अररसदून।।2/4

    मधसुदून भीष्म ंच द्रोर् ं ह ेकामहतंा! भीष्म {जैसे बाबाओं} और {महान प्राचाया जसैे} द्रोर् को

    सं् यऽेहवमषवुभः कथम्प्रवतयो्स्तयावम {धमा-}यदु्ध में मैं {ज्ञान-}बार्ों स े{कटाक्षपूवाक} कैस ेयदु्ध कूँाँ गा?

    अररसदून पजूाहौ ह ेअररमदान कामारर! {वे मेरे बचपन से ही सम्माननीय और} पजूनीय हैं।

    गूुँनह्वा वह महानभुावान ्श्रयेो भोकंु् भकै्ष्यमवप इह लोके। ह्वाथाकामान ्त ुगूुँवनहवै भञु्जीय भोगान ्रुवधरप्रददर्ग्धान ्।। 2/5

    महानभुावान ्गूुँन ्अह्वा वह महानभुाव गरुुओं को {उनके धमा में अवनश्चय की मौत} मारन ेकी अपके्षा

    इह लोके भकै्ष्य ंभोकंु् अवप श्रयेो इस लोकमें भीख मााँगकर खानाभी अच्छाह;ै {क्योंदक मान-मताबा लोलुप&}

    अथाकामान ्गूुँन ्ह्वा त ुइह धन के इच्छुक गरुुओं को {स्तवधारर्ायुक् जीवनिैली स}े मारकर तो यहााँ

    रुवधरप्रददर्ग्धान ्भोगान ्एव भुजंीय {ववकल्पों के} खनू स ेसन े{आ्मर्ग्लावन वाल}े भोगों को ही भोगूाँगा।

    न चतैविद्मः कतरत ्नो गरीयो यिा जयमे यदद वा नो जययेःु। यानवे ह्वा न वजजीववषामस्ततऽेववस्तथताः प्रमखु ेधाताराष्ट्ाः।। 2/6

    च नो कतरत ्गरीयः वा यत ्जयमे और हमारे वलए क्या श्रषे्ठ ह?ै अथवा दक हम {धमायुद्ध में} जीतेंग े

    वा यदद नो जययेःु एतत ्न ववद्मः अथवा यदद {वे} हमें जीतेंग-े यह {भववष्यफल भी हम} नहीं जानत।े

    यान ्ह्वा न वजजीववषामः एव वजन्हें मारकर {हम} जीना ही नहीं चाहत,े {मनसा संकल्पों के मूल खून वाल}े

    त ेधाताराष्ट्ाः प्रमुखवै अववस्तथताः व े{पंूजीवादी संबंधीजन} धतृराष्ट्-पतु्र {कौरव} सामन ेही खड़ ेहैं।

    कापाण्यदोषोपहतस्तवभावः पचृ्छावम ्वा ंधमासम्मढूचतेाः। यच्रेयः स्तयाविवश्चत ंब्रवूह तन्म ेविष्यस्ततऽेह ंिावध मा ं्वा ंप्रपि।ं। 2/7

    कापाण्यदोषोपहतस्तवभावः {पापपूर्ा कवलयुगी मन-बुवद्ध की} दीनता के दोष स ेववकृत स्तवभाव वाला,

  • धमासम्मढूचतेाः ्वा ंपचृ्छावम धमा की बातों में महामखूा {मैं} आप {वत्रकालदिी भगवान से} पूछता हाँ।

    यच्रेयः वनवश्चत ंस्तयािन्म ेब्रवूह जो भलाई की {सद्धमाानुकूल ऐसी} वनवश्चत ्बात हो, वह मुझ ेबताएाँ।

    अह ंत ेविष्यः ्वा ंप्रपि ंमा ंिावध मैं आपका विष्य हाँ, {हर प्रकार स}े आपकी िरर् में हाँ। मझु ेविक्षा दीवजए।

    न वह प्रपश्यावम मम अपनदु्यात ्यत ्िोकं उच्छोषर् ंइवन्द्रयार्ा।ं अवाप्य भमूौ असपत्न ंऋद्ध ंराज्य ंसरुार्ामवप चावधप्यं।।

    2/8

    वह भमूौ असपत्न ंऋद्ध ंराज्य ंच सरुार्ा ं क्योंदक पथृ्वी पर ित्रवुवहीन ऐश्वयावान राज्य और दवेों का

    आवधप्य ंअवाप्य अवप यत ्इवन्द्रयार्ा ं स्तवावम्व पा करके भी, {आप सवािवक्वान के वसवा} जो इवन्द्रयों को

    उच्छोषर् ंमम िोकं अपनदु्यात ्न प्रपश्यावम सखुान ेवाल ेमरेे िोक को दरू करे, {वैसा मैं} नहीं दखेता।

    सजंय उवाच-एवमकु््वा हृषीकेि ंगुडाकेिः परन्तप। न यो्स्तय इवत गोववन्दमकु््वा तषू्र्ीं बभूव ह।। 2/9

    परंतप गुडाकेिः हृषीकेि ंगोववन्द ं ित्रतुापक, वनद्राजीत अजुान वजतवेन्द्रय {ह्यूमन गौवेिा} गोववन्द स े

    एवम ्उक््वा ‘न यो्स्तय इवत’ ऐसा कहकर ‘{मैं गुरुजनों & सावथयों स}े यदु्ध नहीं कूँाँ गा’- इतना

    ह उक््वा तषू्र्ीं बभूव स्तपष्ट कहकर {अभी-2 दःुख&संियहताा को मानके भी, ना करके} चुप हो गया।

    तमवुाच हृषीकेिः प्रहसविव भारत। सनेयोरुभयोमाध्य ेववषीदन्त ंइद ंवचः।। 2/10

    भारत उभयोः सनेयोः मध्य े ह ेभरतविंी राजा! {यादव सेना-साथी कौरवों & पाण्डवों} दोनों सनेाओं के बीच में

    ववषीदन्त ंत ंहृषीकेिः िोकाकुल उस {अकेले मायूस हुए अजुान} स ेइंदद्रयवजत {अमोघवीया} विवबाबा

    प्रहसन ्इव इद ंवचः उवाच प्रसि होत ेहुए के समान {उसका उमंग-उ्साह बढाने वलए} यह वचन कहन ेलग।े

    भगवानवुाच-अिोच्यानन्विोचस्त्व ंप्रज्ञावादांश्च भाषस।े गतासनूगतासनूशं्च नानिुोचवन्त पवण्डताः।। 2/11

    ्व ंअिोच्यान ्अन्विोचः च त ूअिोचनीय {ववनािी दवैहक संबंधों का} िोक कर रहा ह ैतथा

    प्रज्ञावादान ्भाषस ेपवण्डताः ज्ञावनयों-जसै ेवचन बोलता ह।ै वविानलोग {दहेधाररयों के अवनश्चय में}

    गतासूशं्च अगतासनू ्नानिुोचवन्त मरन ेऔर {उनके आधार पर वनश्चय में} जीन ेका िोक नहीं करत।े

    न ्ववेाह ंजात ुनास ंन ्व ंनमे ेजनावधपाः। न चवै न भववष्यामः सव ेवयमतः परं।। 2/12

    अह ंजात ुन आस ंन एव ्व ंन मैं {आ्मज्योवत विव} कोई भी समय न था- {ऐसा} नहीं ह,ै उसी तरह त ूनहीं

    इम ेजनावधपाः न च अतः परं {था अथवा} य ेनतेागर् नहीं {थे} और अब बाद में {बेहद ड्रामा के चतेना्म-स्तटारूँप}

    वय ंसव ेन भववष्यामः न हम सब नहीं होंग-े {ऐसा भी} नहीं {ह।ै सभी आ्माएाँ अववनािी हैं, दहे ववनािी ह}ै।

    दवेहनोऽवस्तमन ्यथा दहे ेकौमारं यौवन ंजरा। तथा दहेान्तरप्रावतः धीरस्ततत्र न महु्यवत।। 2/13

    यथादवेहनोऽवस्तमन्दहे ेकौमारं यौवनं जसै ेआ्मा की इस दहे में {उिरोिर} कुमार, यवुावस्तथा {और}

    जरा तथा बुढापा ह,ै वसै ेही {चतुयुागी में दवैहक दसों इवन्द्रयों के ववनािी सुख भोगने से}

  • दहेातंरप्रावतः दसूरे-2 {उिरोिर सत-रज-तामसी क्षीर्ायु} िरीरों की प्रावत होती ह।ै

    धीरः तत्र न महु्यवत धयैावान ्{आ्मस्तथ ब्रह्माव्स ब्राह्मर्} उस ववषय में मोह नहीं करत।े

    मात्रास्तपिाास्तत ुकौन्तये िीतोष्र्सखुदःुखदाः। आगमापावयनोऽवन्याः तान ्वतवतक्षस्तव भारत।। 2/14

    कौन्तये मात्रास्तपिााः त ुिीतोष्र्- ह ेकंुती-पतु्र! {कमा-}इवन्द्रयों के ववषय तो {घड़ी-2 पररवतानिील,} सदी-गमी,

    सखुदःुखदाः आगमापावयनः सखु-दःुख-दाता हैं, आन-ेजान ेवाल ेहैं {और स्तवगीय सुखों की भेंट में}

    अवन्याः भारत तान ्वतवतक्षस्तव अवन्य हैं। ह ेभरतविंी! उनको {तू अपनी वतकड़म वबना} सहन कर।

    य ंवह न व्यथयन््यते ेपरुुष ंपरुुषषाभ। समदःुखसखु ंधीरं सोऽमतृ्वाय कल्पत।े। 2/15

    पुरुषषाभ समदःुखसखु ं ह ेआ्माूँप पाटाधाररयों में सवाश्रेष्ठ! दःुख-सखु में समान {वस्तथवत में रहन ेवाल}े

    य ंधीरं परुुषमते ेन व्यथयवन्त वजस धयैावान परुुष को य े{ववषय-भोग कमा करते भी} व्यवथत नहीं करत,े

    सः वह अमतृ्वाय कल्पत े वह {आ्मज्योवत में एकाग्र व्यवक्} अवश्य ही अमर्व के वलए योर्ग्य बनता ह।ै

    नासतो ववद्यत ेभावो नाभावो ववद्यत ेसतः। उभयोरवप दषृ्टः अतंः त ुअनयोः तत्त्वदर्िावभः।। 2/16

    असतः भावः न ववद्यत ेत ुसतः असत का अवस्तत्व नहीं होता एव ं{कोई भी} स्य का {कल्पांत में भी}

    अभावः न ववद्यत े अभाव नहीं होता। {जैसे सृवष्ट-बीज/महादवे/आदम सदाकाल ह ै& रहगेा।}

    अनयोरुभयोरप्यन्तः तत्त्वदर्िावभदृाष्टः इन {सदसत} दोनों का भी वनर्ाय त्वज्ञावनयों िारा दखेा गया ह।ै

    अववनावि त ुतविवद्ध यने सवावमद ंतत।ं ववनािमव्ययस्तयास्तय न कवश्च्कतुामहावत।। 2/17

    यने इद ंसव ंतत ं वजस {मानव-बीज महादवे} िारा यह सारा {अश्व्थ नाम का सृवष्ट-वृक्ष} फैला ह,ै

    तत्त्वववनावि वववद्ध अस्तयाव्ययस्तय उसको तो अववनािी जान। इस अववनािी {जगव्पता स्तवूँप बीज} का

    ववनाि ंकतु ंकवश्चत ्न अहावत ववनाि करन ेमें कोई भी समथा नहीं ह।ै {कल्पांत में भी अकालमूता ह।ै}

    अन्तवन्त इम ेदहेा वन्यस्तयोक्ाः िरीररर्ः। अनाविनोऽप्रमयेस्तय तस्तमात ्यधु्यस्तव भारत।। 2/18

    वन्यस्तय अनाविनः अप्रमयेस्तय {ऐसे तो} वन्य, अववनािी, माप न करन ेयोर्ग्य {अरु्ूँप अवतसूक्ष्म अन्य सभी}

    िरीररर्ः इम ेदहेाः अन्तवन्तः दहेधारी आ्माओं के य ेिरीर {चतुयुागी के जन्म-जन्मान्तर में भी} नािवान ्

    उक्ाः तस्तमात ्भारत यधु्यस्तव कह ेहैं, अतः ह ेभरतविंी! {धमा-}यदु्ध कर। {क्योंदक स्य सनातन धमा और उसका

    स्तथापक इस पुरु. संगमयुग में सदासत, कालों का काल अकालमूता महादवे ही ह।ै}

    य एन ंववेि हन्तारं यश्चनै ंमन्यत ेहत।ं उभौ तौ न ववजानीतो नाय ंहवन्त न हन्यत।े। 2/19

    य एन ंहन्तारं ववेि च यः एन ं जो इस {आ्माओं और परमा्मा} को मारन ेवाला समझता ह ैऔर जो इस े

    हत ंमन्यत ेतो उभौ न ववजानीतः मरा हुआ मानता ह,ै व ेदोनों {ही ठीक} नहीं जानत।े {वो बीज ऑलराउंडर ह।ै}

    अय ंन हवन्त न हन्यत े यह {आ्मा कल्पांत में भी} न {दकसी को} मारता ह ै{और} न मारा जाता ह।ै

  • न जायत े वियत े वा कदावचिाय ं भू् वा भववता वा न भयूः। अजः वन्यः िाश्वतोऽय ं परुार्ो न हन्यत े हन्यमान े

    िरीरे।।2/20

    अय ंकदावचि जायत ेवा न वियत े यह कभी न जन्मता ह ैऔर न मरता ह,ै {हााँ सहज-2 दहेूँप वस्त्र उतारता ह}ै

    वा भू् वा भयूः न भववता अथवा होकर दफर स े{सृवष्ट रंगमंच पर} नहीं होगा- {ऐसे भी नहीं ह}ै।

    अजः वन्यः िाश्वतः परुार्ोऽयं अजन्मा, वन्य, सनातन, {कल्प पूवा का सदा स्तथायी} परुातन यह

    िरीरे हन्यमान ेन हन्यत े {हीरो पाटाधारी}, दहे हनन होन ेपर {भी} नहीं मारा जाता।

    वेदाववनाविन ंवन्य ंय एनमजमव्यय।ं कथ ंस परुुषः पाथा कं घातयवत हवन्त कं।। 2/21

    पाथा य एन ंवन्य ंअज ंअव्यय ं ह ेपथृ्वीपवत! जो इस {अरु्ूँप आ्मा} को वन्य, जन्मरवहत, अक्षय

    अववनाविन ंवदे स परुुषः {और} अववनािी जानता ह,ै वह {ववश्वकल्यार्कारी जगव्पता परम+} आ्मा

    कं कथ ंघातयवत कं हवन्त दकसको कैस ेमरवाता ह ै{और ‘वसुधैव कुटंुब’ का वपता} दकसको मारता ह?ै

    वासांवस जीर्ाावन यथा ववहाय नवावन गहृ्णावत नरोऽपरावर्। तथा िरीरावर् ववहाय जीर्ाान्यन्यावन सयंावत नवावन देही।। 2/22

    यथा नरः जीर्ाावन वासावंस ववहाय अपरावर् जसै ेमनषु्य परुान ेवस्त्रों को ्यागकर दसूरे

    नवावन गहृ्णावत तथा जीर्ाावन िरीरावर् नए ग्रहर् करता ह,ै उसी प्रकार परुान ेिरीरों को

    ववहाय दहेी अन्यावन नवावन सयंावत छोड़कर {यह} आ्मा दसूरे नए {िरीरों} को ग्रहर् करती ह।ै

    ननै ंवछन्दवन्त िस्त्रावर् ननै ंदहवत पावकः। न चनै ंक्लदेयवन्त आपः न िोषयवत मारुतः।। 2/23

    एन ंिस्त्रावर् न वछन्दवन्त एन ंपावकः इस {आ्मा} को िस्त्र नहीं काटत,े इसको {जड़्वमयी} अवि

    न दहवत एन ंमारुतः न िोषयवत च नहीं जलाती, इसको {अदिानीय} हवा भी नहीं सखुाती और

    आपः न क्लदेयवन्त पानी नहीं वभगोता। {प्र्येक चतुयुागी पूवा महाववनाि की भी यही बात ह।ै}

    अच्छेद्यः अय ंअदाह्यः अय ंअक्लदे्यः अिोष्यः एव च। वन्यः सवागतः स्तथार्रुचलोऽय ंसनातनः।। 2/24

    अय ंअच्छेद्यो अय ंअदाह्यः अक्लदे्यः यह {आ्मज्योवतूँप} अकाट्य ह ैऔर जलता नहीं, न भीगता

    चवै अिोष्यः अय ंवन्यः स्तथार्ुः और वनस्तसदंहे सखूता नहीं। यह वन्य {अववनािी} ह,ै वस्तथतिील ह।ै

    सवागतः सनातनः अचलः {मन-बुवद्ध ूँप ज्योवत होने से} सवागामी ह,ै सनातन {और} अचल ह।ै

    अव्यक्ोऽयमवचन््योऽयमववकायोऽयमचु्यत।े तस्तमादवे ंववदद्वनै ंनानिुोवचतु ंअहावस।। 2/25

    अय ंअव्यक्ः अय ंअवचन््यः अय ं यह अव्यक् ह।ै यह अवचन््य ह।ै यह {ववनािी पंचभूतों की ववस्तमृवत में रहने स}े

    अववकायाः उच्यत ेतस्तमात ्एन ंएवं वनर्वाकारी बताई जाती ह।ै इसवलए इसको ऐसा {पञ्चभूतों से पृथक्}

    ववदद्वा अनिुोवचतु ंन अहावस जानकर {भी त}ू िोक करन ेके योर्ग्य नहीं ह;ै {क्योंदक आ्मा सुखूँप ह।ै}

    अथ चनै ंवन्यजात ंवन्य ंवा मन्यस ेमतृ।ं तथावप ्व ंमहाबाहो नवै ंिोवचतमुहावस।। 2/26

    अथ च एन ंवन्यजात ंवा वन्य ंमतृ ंमन्यस े और यदद इस ेसदा जन्मन ेवाला अथवा वन्य मरन ेवाला मानता है,

  • तथावप महाबाहो ्वमवै ंिोवचतु ंनाहावस तो भी ह ेदीघाबाहु! त ूइस तरह िोक करन ेयोर्ग्य नहीं ह;ै

    जातस्तय वह ध्रवुो मृ् यःु ध्रवु ंजन्म मतृस्तय च। तस्तमादपररहायऽेथ ेन ्व ंिोवचतमुहावस।। 2/27

    वह जातस्तय मृ् यःु ध्रवुः च मतृस्तय क्योंदक जन्मन ेवाल ेकी मृ् य ुवनवश्चत ह ैऔर {दहे िारा} मरन ेवाल ेका

    जन्म ध्रवु ंतस्तमादपररहाय ेअथ े जन्म वनवश्चत ह;ै {दवैहक स्तमृवत ह ैतो जन्म-मृ्यु भी रहगेी}। अतः न टलन ेयोर्ग्य बात में

    ्व ंिोवचतु ंअहावस न त ूिोक करन ेके योर्ग्य नहीं ह।ै {कल्प-2 जन्ममृ्यु की हबह पुनरावृवि होती ह।ै}

    अव्यक्ादीवन भतूावन व्यक्मध्यावन भारत। अव्यक्वनधनान्यवे तत्र का पररदवेना।। 2/28

    भारत भतूावन आदीवन अव्यक्ः ह ेभरतविंी! {सृवष्ट के आददकाल में भी} प्रावर्यों का आदद अदशृ्य ह।ै

    व्यक्मध्यावन अव्यक्वनधनान्यवे मध्य {जीवन} व्यक् ह।ै मृ् य ुबाद {या कल्पान्त} में भी अव्यक् हैं।

    तत्र का पररदवेना उसमें क्या िोक करना? {ककंतु पु. संगम में 100% आ्मस्तथ हो जाने से}

    आश्चयावत ्पश्यवत कवश्चत ्एन ंआश्चयावत ्वदवत तथवै चान्यः।

    आश्चयावत ्चनैमन्यः िृर्ोवत श्रु् वाप्यने ंवदे न चवै कवश्चत।्। 2/29

    एन ंकवश्चत ्आश्चयावत ्वदवत चान्यः इस {हीरो}* को कोई {नं. वार जानकार} आश्चया स ेबताता ह ैऔर दसूरा

    तथवै आश्चयावत ्पश्यवत च अन्यः वसै ेही आश्चया स ेदखेता ह ैऔर दसूरा {कोई कुछ-न-कुछ जानकर}

    एन ंआश्चयावत ्िृर्ोवत च कवश्चत् इसको आश्चया स ेसनुता ह ैऔर कोई {अनास्तथावान नावस्ततक तो}

    श्रु् वा अवप एनम ्न वदे सनुकर भी इस ेनहीं जान पाता। {इसीवलए संसार में नं. वार सुख भोगी हैं।}

    * {िंकर क्या करत ेहैं? उनका पाटा ऐसा वण्डरफुल ह ैजो तुम ववश्वास कर न सको।} (मु.ता.14.5.70)

    दहेी वन्य ंअवध्योऽय ंदहे ेसवास्तय भारत। तस्तमात ्सवाावर् भतूावन न ्व ंिोवचतमुहावस।। 2/30

    भारत अय ंदहेी सवास्तय दहे े ह ेअजुान! यह {सृवष्ट-बीज} परम+आ्मा सबके िरीरों में {पु. संगम के

    वन्य ंअवध्यः तस्तमात ््व ं नं. वार पुरुषाथा से प्रात ऊजााूँप होने से} सदा अवध्य ह।ै इसवलए त ू

    सवाावर् भतूावन िोवचतु ंन अहावस {इस सृवष्टमंच के} सभी प्रावर्यों का िोक करन ेके वलए योर्ग्य नहीं ह।ै

    स्तवधमामवप चावके्ष्य न ववकवम्पतमुहावस। धम्याात ्वह यदु्धात ्श्रयेोऽन्यत् क्षवत्रयस्तय न ववद्यत।े। 2/31

    च स्तवधम ंअवप अवके्ष्य ववकवम्पतुं इसके अलावा {हर} आ्मा के धमा को भी दखेकर {त}ू ववचवलत होन े

    न अहावस वह धम्याात ्यदु्धात ् योर्ग्य नहीं ह;ै क्योंदक {4 वर्ों में वविेष ूँप स}े धमायदु्ध के वसवाय

    क्षवत्रयस्तय अन्यत ्श्रयेः न ववद्यत े क्षवत्रय के वलए {राजयोग से वमले राज्य सुख वसवा कोई} दसूरा कल्यार् नहीं ह।ै

    यदचृ्छया चोपपि ंस्तवगािारं अपावतृ।ं सवुखनः क्षवत्रयाः पाथा लभन्त ेयदु्धमीदिृ।ं। 2/32

    यदचृ्छया उपपि ंच अपावतृ ंस्तवगािारं अनायास प्रात हुए और {वसववलवार िारा} खलु ेहुए स्तवगा के िार वाल े

    ईदिृ ंयदु्ध ंपाथा सवुखनः क्षवत्रयाः लभन्त े ऐस े{महाभारत} यदु्ध को ह ेपथृ्वीपवत! सखुी क्षवत्रयजन {ही} पात ेहैं।

  • • {जो मायावी ववकारों के यदु्ध के मैदान में दहे वा दहेभान को छोड़ेंगे, वे स्तवगा में आवेंगे।} (मुरली ता.6.5.67 पृ.1

    अंत)

    अथ चते्त्ववमम ंधम्य ंसङ्खग्राम ंन कररष्यवस। ततः स्तवधम ंकीर्त ंच वह्वा पापमवाप्स्तयवस।। 2/33

    अथ चते ््वम ्इम ंधम्य ंसगं्रामं दकन्त ुयदद त ू{गेट वे टू हवैवन वाला} यह धार्माक {अहहसंक महाभारत} यदु्ध

    न कररष्यवस ततः स्तवधम ंच कीर्त ं नहीं करेगा, तो {अल्लाह अव्वलदीन के स्य सनातन} स्तवधमा और कीर्ता को

    वह्वा पाप ंअवाप्स्तयवस नष्ट करके {ितैवादी दै् यों के हहसंक धमावृवद्ध के} पाप का {ही} भागी बनगेा

    अकीर्त ंचावप भतूावन कथवयष्यवन्त तऽेव्यया।ं सम्भाववतस्तय चाकीर्ताः मरर्ादवतररच्यत।े। 2/34

    च भतूावन अव्यया ंत ेअकीर्त ंकथवयष्यवन्त च और {दःुखी-अिांत} लोग वनरंतर तरेी अपकीर्ता करेंग ेऔर

    सम्भाववतस्तय अकीर्ताः मरर्ात ्अवप अवतररच्यत े सम्मावनत व्यवक् के वलए अपकीर्ता मौत स ेभी बढकर ह।ै

    {‘‘स्तवधमे वनधनं श्रेयः परधमो भयावहः’’} (गीता 3/35) {धन गया तो कुछ नहीं, धमा गया तो सब गया।}

    भयाद्रर्ादपुरत ंमसं्तयन्त े्वा ंमहारथाः। यषेा ंच ्व ंबहुमतो भू् वा यास्तयवस लाघव।ं। 2/35

    महारथाः ्वा ंभयात ्रर्ात ् महारथी तझुको {क्षवत्रय योद्धा होते हुए भी ववरोवधयों के} भय स े{धमा-}यदु्ध स े

    उपरत ंमसं्तयन्त ेयषेा ं्व ं ववमखु हुआ मानेंग।े वजनके {मन में} तरेा {महानतम धनुधार होने का}

    बहुमतो भू् वा लाघवम्यास्तयवस बहुत मान ह,ै {वे ही भारतीय सनातनी लोग तुझको} तचु्छ समझेंग।े

    अवाच्यवादाशं्च बहन ्वददष्यवन्त तवावहताः। वनन्दन्तस्ततव सामथ्य ंततो दःुखतरं न ुककं।। 2/36

    च तव अवहताः तव सामथ्य ं और तरेे {ढाई हज़ार वषों से वनरंतर कन्वर्टाड} ववरोधी तरेे सामथ्या की

    वनन्दन्तः बहन ्अवाच्यवादान ् हनदंा करके बहुत-सी {गन्दी & असहनीय र्ग्लावन भरी} अनकहनी बातें

    वददष्यवन्त ततः दःुखतरं न ुककं बोलेंग,े उसस ेबढकर {सांसाररयों से मुाँह छुपाने जैसा} और क्या दःुख होगा?

    हतो वा प्राप्स्तयवस स्तवग ंवज्वा वा भोक्ष्यस ेमहीं। तस्तमादवुिष्ठ कौन्तये यदु्धाय कृतवनश्चयः।।2/37

    कौन्तये वा हतः स्तवग ंप्राप्स्तयवस ह ेकुन्तीपतु्र! या {हौसले से लड़ते-2} मौत पाई {तो} स्तवगा को पाएगा

    वा वज्वा महीं भोक्ष्यस ेतस्तमात ् अथवा जीतकर {अितैवादी स्तवगीय} धरर्ी को भोगगेा; इसवलए

    यदु्धाय कृतवनश्चयः उविष्ठ यदु्धाथा वनश्चय कर उठ खड़ा हो। {ववश्वववजय तेरा ही जन्मवसद्ध अवधकार ह।ै}

    सखुदःुख ेसम ेकृ्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय यजु्यस्तव नवै ंपाप ंअवाप्स्तयवस।। 2/38

    सखुदःुख ेलाभालाभौ जयाजयौ सखु-दःुख को, लाभ-हावन को {और} जय-पराजय {ूँप इन सभी िदंों} को

    सम ेकृ्वा ततः यदु्धाय यजु्यस्तव समान {मान} करके, {स्तवयं वस्तथर हो} बाद में {धमा-}यदु्ध के वलए तयैार हो जा।

    एव ंपाप ंन अवाप्स्तयवस इस तरह {दहेधाररयों के बेलगाव से (गी.18-17)} पाप नहीं लगगेा।

    एषा तऽेवभवहता साङ्ख्य ेबवुद्धयोगे त ुइमा ंिरृ्।ु बुद्धध्या युक्ो यया पाथा कमाबन्ध ंप्रहास्तयवस।।2/39

  • पाथा एषा बवुद्धः त ेसां् य े ह ेअजुान! यह मत तरेे {ही आददूँप कवपलमुवन के} सां् यिास्त्र में

    अवभवहता त ुयोग ेइमा ंिरृ्ु कही गई ह ैऔर {अब} कमायोग में इस {मत} को {मेरे स}े सनु।

    यया बुद्धध्या यकु्ः कमाबन्ध ंप्रहास्तयवस वजस {शे्रष्ठतम} मत स ेयकु् हुआ {तू} कमों के बधंन को नष्ट कर दगेा।

    न इह अवभक्रमनािोऽवस्तत प्र्यवायो न ववद्यत।े स्तवल्पमवप अस्तय धमास्तय त्रायत ेमहतो भयात।्। 2/40

    इह अवभक्रमनािः न अवस्तत प्र्यवायः इस {योग} में पुरुषाथा का {पुनजान्म में} नाि नहीं होता, उल्टाफल {भी}

    न ववद्यत ेअस्तय धमास्तय स्तवल्प ंअवप नहीं होता। इस {योग की} धारर्ा का अल्पांि भी {जन्म-जन्मान्तर में भी}

    महतः भयात ्त्रायत े महान भय स ेरक्षर् करता ह।ै {योग-ऊजाा से ही सारे काम होते हैं।}

    व्यवसायाव्मका बवुद्धः एका इह कुरुनन्दन। बहुिाखा वह अनन्ताश्च बदु्धयोऽव्यवसावयना।ं। 2/41

    कुरुनन्दन इह व्यवसायाव्मका ह ेकुरुविं के प्रह्लाद! इस {योग} में वनश्चया्मक {ज्ञान 1 से आता ह;ै अतः}

    बवुद्धः एका च अव्यवसावयना ं {श्री}मत ्1 {विवबाबा की} ही {ह}ै, जबदक {धमावनरपेक्ष} अवनश्चयी लोगों की

    बदु्धयः वह बहुिाखा अनन्ताः मतें वनश्चय ही अनके {सांप्रदावयक} िाखाओं की असं् य हैं।

    यावममा ंपवुष्पता ंवाच ंप्रवदवन्त अववपवश्चतः। वदेवादरताः पाथा नान्यत ्अवस्तत इवत वाददनः।। 2/42

    पाथा वदेवादरताः अन्यत ्नावस्तत ह ेपाथा! वदेवाद में वलत रहन े{वसवाय} दसूरा {मागा} नहीं-(गी.2-45)

    इवत वाददनः अववपवश्चतः या ंइमा ं ऐसा कहन ेवाल े{मंददर-मूर्ता-पूजाहीन ब्रह्मानुगामी} अवववकेीजन हैं, जो य े

    पुवष्पता ंवाच ंप्रवदवन्त फली-फूली मीठी-2 वार्ी बोलत ेहैं। {पवश्चम के श्रीनाथ में मालपूए खाने वाल ेहैं।}

    कामा्मानः स्तवगापरा जन्मकमाफलप्रदा।ं दक्रयावविषेबहुला ंभोगशै्वयागहत ंप्रवत।। 2/43

    कामा्मानः स्तवगापरा {वे स्तवाथी सांसाररक} कामनाओं वाल ेहैं, {अपना} ‘सखु पाना ही परम परुुषाथा ह’ै,

    भोगशै्वयागहत ंप्रवत जन्मकमा {परमाथारवहत} सासंाररक भोगशै्वया प्रावत हते ुजन्म-जन्मातंर के कमा

    फलप्रदा ंदक्रयावविषेबहुला ं फल-प्रदायी वविषे {स्तवाहा-2 जैस}े दक्रयाकाण्डादद की बहुत बातें {कहते हैं}।

    भोगशै्वयाप्रसक्ाना ंतया अपहृतचतेसा।ं व्यवसायाव्मका बवुद्धः समाधौ न ववधीयत।े। 2/44

    तया अपहृतचतेसा ंभोगशै्वया- उस {मीठी वार्ी} स ेहखचं ेवचि वालों {और दवैहक-भौवतक} भोगशै्वया में

    प्रसक्ाना ंव्यवसायाव्मका आसक्जनों की {ऐसी ददखावटी और झूठी परम्पराओं में} वनश्चया्मक

    बवुद्धः समाधौ ववधीयत ेन बवुद्ध, {आ्मा के 84 चक्र की सम्पूर्ा गहराई ूँप} समावध में वस्तथत नहीं होती।

    त्रैगणु्यववषया वदेा वनस्त्रगैणु्यो भवाजुान। वनिान्िो वन्यसत्त्वस्तथो वनयोगक्षमे आ्मवान।्। 2/45

    अजुान वदेा त्रैगणु्यववषया ह ेअजुान! वदे 3 गरु्ों के ववषय वाल ेहैं। {अथाात् रजो & तमोगुर्ी भी हैं। तू यहााँ}

    वनस्त्रगैणु्यः वन्यसत्त्वस्तथः 3 गरु्ों स ेपरे, सदा {16 कलाओं से भी अतीत} स्वगरु् में वस्तथर रहन ेवाला,

    वनिान्िः वनयोगक्षमे {सुख-दखुादद} िन्िमकु्, प्रावत वा सरुक्षारवहत बन; {क्योंदक ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’}

  • आ्मवान ्भव {गीता 9-22, अतः दहेभान छोड़ सदाकाल} आ्मवस्तथवत वाला बन जा।

    यावानथा उदपान ेसवातः सम्प्लतुोदके। तावान्सवषे ुवदेषे ुब्राह्मर्स्तय ववजानतः।। 2/46

    सवातः सम्प्लतुोदके यावान ्अथा चारों ओर स ेसम्परू्ा भरपरू {ज्ञान-मान}सरोवर वमल ेतो वजतना प्रयोजन

    उदपान ेतावान ्ववजानतः {छोटे- मोटे} पोखरों में हो, उतना {ही} वविषे {एडवांस ज्ञानसागर के} ज्ञानी

    ब्राह्मर्स्तय सवषे ुवदेषे ु ब्राह्मर् का सभी {ब्रह्मामुखवनसृत} वेदवाक्यों {जैसी मुरवलयों} में होता ह।ै

    कमाण्यवेावधकारः त ेमा फलषे ुकदाचन। मा कमाफलहतेःु भमूाा त ेसङ्खगोऽस्तत ुअकमावर्।। 2/47

    त ेकमावर् एव अवधकारः फलषे ुकदाचन तरेा {श्रीमदनुसार} कमायोग में ही अवधकार ह,ै फल में कभी {भी}

    मा कमाफलहतेःु मा भःू नहीं; {इसवलए} कमाफल का कारर् मत बनो। {गी. 3-19 से 30 अतः}

    त ेअकमावर् सगंः मा अस्तत ु तमु्हारी कमा् याग में {भी} आसवक् न हो। {कमायोगी ही बनना ह।ै}

    योगस्तथः कुरु कमाावर् सङ्खग ं्यक््वा धनञ्जय। वसद्धध्यवसद्धध्योः समो भू् वा सम्व ंयोग उच्यत।े। 2/48

    धनजंय ह े{सच्चीगीता एडवांस} ज्ञानधनजतेा {धनं+जयवत} अजुान!

    सगं ं्यक््वा योगस्तथः {दवैहक पदाथों & सम्बवन्धयों की} आसवक् को ्यागकर, योगाूँढ हुआ,

    वसद्धध्यवसद्धध्योः समः भू् वा सफलता वा असफलता में समान होकर, {कमाफल से वनःसंकल्प हो}

    कमाावर् कुरु सम्व ंयोगः उच्यते कमों को कर। {हर प्रकार के िदंों में} सम्व {ही} योग कहा जाता ह।ै

    दरेूर् वह अवरं कमा बवुद्धयोगाद्धनञ्जय। बदु्धौ िरर्मवन्वच्छ कृपर्ाः फलहतेवः।। 2/49

    धनजंय बवुद्धयोगात ्वह कमा ह ेज्ञानधनजतेा {अजुान! 1 ऊाँ च-ते-ऊाँ च में} बवुद्धयोग लगान ेवसवा केवल कमा करना

    दरेूर् अवरं बदु्धौ िरर् ं अ्यन्त नीचा ह।ै बवुद्धमान {लोगों की भी बुवद्ध ‘वत्रनेत्री विवबाबा’} की िरर्

    अवन्वच्छ फलहतेवः कृपर्ाः ल।े कमाफल के इच्छुक कंजसू* हैं, {ववश्व-कल्यार्ाथा कुछ नहीं दतेे।}

    *{कंजसू} {पवश्चमी सभ्यता के प्रतीक श्रीनाथ की भााँवत लोक-कल्यार् वलए कुछ भी ्यागना नहीं चाहते, सारे घी

    के माल बेचकर भी खुद ही खा जाते हैं। इसवलए इस गरीबों के जगत में पूरब के जगिाथ का भोग खाना ह।ै}

    इसीवलए मुरली ता. 26/6/70 में बोला – “सभी से फस्तटाक्लास िुद्ध खाना ह-ै दाल(या कढी), चावल, आलू।”

    बवुद्धयुक्ो जहातीह उभ ेसकृुतदषु्कृत।े तस्तमाद्योगाय यजु्यस्तव योगः कमास ुकौिल।ं। 2/50

    बवुद्धयुक्ो इह उभ ेसकृुतदषु्कृते बवुद्धयोगी इस {लोक} में दोनों प्रकार के अच्छे & बरेु कमा {जैसे}

    जहावत कमास ुकौिल ं {ररश्वत, चोरी-चकारी, हहसंा आदद भी} छोड़ दतेा ह।ै कमों में कुिलता {ही}

    योगः तस्तमात ्योगाय यजु्यस्तव योग ह।ै अतः {क्षेत्रूँप मुकरार रथ & क्षेत्रज्ञ विवज्योवत के} योग में जटु जा।

    कमाज ंबवुद्धयुक्ा वह फल ं्यक््वा मनीवषर्ः। जन्मबन्धवववनमुाक्ाः पद ंगच्छवन्त अनामय।ं। 2/51

    वह बवुद्धयकु्ा मनीवषर्ः कमाजं क्योंदक {विवबाबा से} बवुद्ध लगान ेवाल ेज्ञानीजन कमा स ेउ्पि हुए

  • फल ं्यक््वा जन्मबधंवववनमुाक्ाः फल को ्यागकर, जन्म-मरर्ाददक बधंनों स ेवविषे ूँप स ेमकु् हुए,

    अनामय ंपद ंगच्छवन्त पापरवहत {अतीवन्द्रय सुख के ववष्रु्लोकीय} परमपद को प्रात करत ेहैं।

    यदा त ेमोहकवलल ंबवुद्धः व्यवततररष्यवत। तदा गन्तावस वनवेद ंश्रोतव्यस्तय श्रुतस्तय च।। 2/52

    यदा त ेबवुद्धः श्रोतव्यस्तय जब तरेी बवुद्ध {मीवडया-िास्त्र-[दवैहक गुरुओं] आदद की} सनुी-सनुाई

    श्रतुस्तय च मोहकवलल ं {ववधर्मायों की* अंधश्रद्धायुक् झूठी} बातों के मोह ूँप कीचड़ को

    व्यवततररष्यवत तदा वनवदे ंगन्तावस पार करेगी, तब {मूसलों से भस्तमीभूत दवुनया के} वरैार्ग्य को प्रात होगा।

    * {िापरादद के ढाई हज़ार वषों स ेस्तलामादद ववधर्मायों में कन्वर्टाड खास भारतवावसयों की बात ह ैदक} सुनी-

    सुनाई बातों पर ही भारतवावसयों ने दगुावत को पाया ह,ै अभी भी पाते जा रह ेहैं। (मु.ता.30.1.71 पृ.4 आदद)

    श्रवुतववप्रवतपिा त ेयदा स्तथास्तयवत वनश्चला। समाधौ अचला बवुद्धः तदा योगमवाप्स्तयवस।। 2/53

    यदा त ेश्रवुतववप्रवतपिा बवुद्धः समाधौ जब तरेी *श्रवुतयों स ेभ्रवमत बवुद्ध {साक्षात}् परमा्म-स्तमवृत में

    वनश्चला अचला स्तथास्तयवत अववचल वस्तथर होगी, {तभी आ्मा ूँपी ररकॉडा के अंदर 84 जन्मों के}

    तदा योग ंअवाप्स्तयवस {चक्र-हचंतन में रहगेी}, तब योग {की समावधस्तथ अवस्तथा} को पा लेगा।

    *{इन िास्त्र आदद पढने से (आजतक भी) दकसको सद्गवत नहीं वमली ह।ै मनुष्य-आ्माओं की सद्गवत का ज्ञान इन

    िास्त्रों में नहीं ह।ै मानवीय गीता से भी दकसी की सद्गवत हो नहीं सकती।} (मुरली ता.20.5.92 पृ.1 आदद)

    अजुान उवाच-वस्तथतप्रज्ञस्तय का भाषा समावधस्तथस्तय केिव। वस्तथतधीः ककं प्रभाषते दकमासीत व्रजते ककं।। 2/54

    केिव (‘क’+ईि) अथाात ्ह े‘ब्रह्मा’ ूँपी {बेसमझ} बलै के ईश्वर {पिुपवत नाथ}! {अभी ब्रह्मा के

    चारों मुख पिु हैं।} 5वााँ ऊध्वामुखी परमब्रह्म पाडंवों के साथ गतु ह।ै

    वस्तथतप्रज्ञस्तय समावधस्तथस्तय वस्तथर बवुद्ध की, {अथाात् सं+अवध+स्तथस्तय} परूी गहराई में वस्तथरता की

    का भाषा वस्तथतधीः ककं क्या पररभाषा ह?ै वस्तथर बवुद्ध वाला {आहार-ववहार, रहन-सहन आदद में} कैस े

    प्रभाषते ककं आसीत ककं व्रजते बोलता ह,ै कैस ेबठैता ह ै{और} कैस ेचलता ह?ै {सारी मावहती चावहए}

    भगवानवुाच-प्रजहावत यदा कामान्सवाान्पाथा मनोगतान।् आ्मवन एव आ्मना तषु्टः वस्तथतप्रज्ञः तदा उच्यत।े।

    2/55

    पाथा मनोगतान ्सवाान ्कामान् ह ेपथृ्वीपवत! मन {के संकल्पों में} चलन ेवाली सभी* कामनाओं को {मनुष्य}

    यदा प्रजहावत आ्मना आ्मवन जब भली-भााँवत ्यागता ह,ै अपन-ेआप स ेआ्मवस्तथवत में {या परमा्मस्तमृवत में}

    एव तषु्टः तदा वस्तथतप्रज्ञः उच्यत े ही सतंषु्ट रहता ह,ै तब वस्तथर बवुद्ध वाला कहा जाता ह।ै {बाकी इच्छामात्रमववद्या}

    * ‘इच्छामात्रमववद्या’ (मु.ता.10/4/68 पृ.3 अंत) (गीता-6 / 4-18-24; 4-19 इ्यादद)

    दःुखषे ुअनवुििमनाः सखुषे ुववगतस्तपहृः। वीतरागभयक्रोधः वस्तथतधीः मवुनः उच्यत।े। 2/56

    दःुखषे ुअनवुििमनाः सखुषे ु दःुखों में उिगे-{बेचैनी} स ेरवहत मन वाला, {लौदकक} सखुों में {अनासक् या}

  • ववगतस्तपहृः वीतरागभयक्रोधः इच्छारवहत {और पुरुषोिम संगमयुग में खास} राग-भय-क्रोध स ेरवहत,

    मवुनः वस्तथतधीः उच्यत े {साक्षात् ईश्वरीय महावाक्यों में} मननिील व्यवक् वस्तथरबवुद्ध कहा जाता ह।ै

    यः सवात्र अनवभस्नहेः ति्प्राप्य िभुािभु।ं नावभनन्दवत न िवेष्ट तस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता।। 2/57

    यः सवात्र अनवभस्नहेः तत-्2 जो {वसवा परमवपता+परमा्मा के} सब ओर स ेपरूा स्नहेरवहत हुआ, उन-2

    िभुािभु ंप्राप्य न अवभनन्दवत न िभु या अिभु को पाकर {साक्षीदषृ्टा की भााँवत} न परूा आनदंदत होता ह,ै न

    िवेष्ट तस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता िषे करता ह,ै उसकी {पारखी & वनर्ाया्मक} बवुद्ध दढृतापूवाक वस्तथर ह।ै

    यदा सहंरत ेचाय ंकूमाः अङ्खगावन इव सवािः। इवन्द्रयावर् इवन्द्रयाथभे्यः तस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता।।2/58

    च यदा अय ंकूमाः अगंावन इव और जब यह {योगी} कछुए के अगंों की तरह {मन सवहत शे्रष्ठ & भ्रष्ट दसों}

    इवन्द्रयावर् इवन्द्रयाथभे्यः सवािः इवन्द्रयों को इवन्द्रयों के ववषय-भोगों {आदद} स ेसब ओर स े{सदाकाल}

    सहंरत ेतस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता सपंूर्ा खींच लतेा ह,ै {तब} उस योगी की बवुद्ध दढृता स ेवस्तथर हो जाती ह।ै

    ववषया वववनवतान्त ेवनराहारस्तय दवेहनः। रसवज ंरसः अवप अस्तय परं दषृ््वा वनवतात।े।2/59

    वनराहारस्तय दवेहनः ववषया वववनवतान्ते ववषय-भोग-्यागी दहेधारी पुरुष के भोग वविषेतः {भले} हटत ेहैं;

    रसवज ंअस्तय {ककंतु} रस लने ेकी आसवक् नहीं हटती। {जबदक} इस {राजयोगी} की

    रसः अवप परं दषृ््वा वनवतात े आसवक् भी {अतीवन्द्रय सुख के} परमाथा को दखेकर हट जाती ह।ै

    यततो वह अवप कौन्तये परुुषस्तय ववपवश्चतः। इवन्द्रयावर् प्रमाथीवन हरवन्त प्रसभ ंमनः।। 2/60

    वह कौन्तये यततः ववपवश्चतः क्योंदक ह े{दहे-अवभमाननाविनी} कुन्ती के पतु्र! प्रयत्न करत ेहुए बवुद्धमान ्

    पुरुषस्तय अवप प्रमाथीवन पुरुष की भी अच्छे स ेमथ डालन ेवाली {खास कामेवन्द्रय सवहत अन्य}

    इवन्द्रयावर् मनः प्रसभ ंहरवन्त इवन्द्रयााँ {अजुान-रथ के चंचल कवपध्वज की तरह} मन को बलपवूाक खींच लतेी हैं।

    तावन सवाावर् सयंम्य यकु् आसीत म्परः। विे वह यस्तय इवन्द्रयावर् तस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता।।2/61

    तावन सवाावर् सयंम्य म्परः युक्ः उन सब {इवन्द्रयों} को भली-भााँवत वि करके मझु {विवबाबा} में मन

    आसीत वह यस्तय इवन्द्रयावर् वि े लगा; क्योंदक वजस {मन-बुवद्ध ूँप ज्योवतहबंद ुआ्मा} की इवन्द्रयााँ वि में {हैं},

    तस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता उसकी बवुद्ध {मन की एकाग्रता के अभ्यास से} दढृतापवूाक वस्तथर रहती ह।ै

    ध्यायतो ववषयान्पुसंः सङ्खगस्ततषे ुउपजायत।े सङ्खगा्सञ्जायते कामः कामा्क्रोधः अवभजायत।े।2/62

    ववषयान ्ध्यायतः पुसंः तषे ुसगंः ववषयों का ध्यान करन ेवाल ेपुरुष को उन {ववषयों} में आसवक्/लगाव

    उपजायत ेसगंात ्कामः सजंायते उ्पि होता ह।ै आसवक् स े{मन में} कामना भी भली-भााँवत पदैा होती ह,ै

    कामात ्क्रोधः अवभजायत े ववकारी कामना {प्राय: पूरी न होन}े स ेक्रोध जोर स ेउ्पि होता ह।ै

    क्रोधाद्भववत सम्मोहः सम्मोहा्स्तमवृतववभ्रमः। स्तमवृतभ्रिंाद्धबवुद्धनािो बवुद्धनािा्प्रर्श्यवत।।2/63

  • क्रोधात ्सम्मोहः भववत सम्मोहात ् क्रोध स ेसम्परू्ा मोह/मूढता आती ह,ै मढूता {से भरपूर} जड़-जड़ीभतू बवुद्ध स े

    स्तमवृतववभ्रमः स्तमवृतभ्रिंात ् स्तमवृत का नाि होता ह,ै स्तमवृत के भ्रष्ट होन ेस े{परख & वनर्ायिवक्ूँपा}

    बवुद्धनािः बवुद्धनािात ्प्रर्श्यवत बवुद्ध नष्ट होती ह ै{और} बवुद्ध नष्ट होन ेस े{अवनश्चय ूँपी} मृ् य ुहोती ह।ै

    रागिषेववयकैु्ः त ुववषयान ्इवन्द्रयःै चरन।् आ्मवश्यैः ववधयेा्मा प्रसादमवधगच्छवत।।2/64

    त ुववधयेा्मा रागिषेववयकैु्ः परंत ुअनिुावसत मन वाला, राग-िषे स ेववहीन {साक्षीदषृ्टा राजयोगी}

    आ्मवश्यःै इवन्द्रयःै ववषयान ् आ्मा की विीभतू इवन्द्रयों स े{धमाानुकूल हहसंाहीन समुवचत} भोग

    चरन ्प्रसाद ंअवधगच्छवत भोगत ेहुए प्रसिता को प्रात करता ह।ै {अथाात् सुख ही दनेा ह,ै सुख लेना ह।ै}

    प्रसाद ेसवादःुखाना ंहावनः अस्तय उपजायत।े प्रसिचतेसो वह आि ुबवुद्धः पयाववतष्ठत।े।2/65

    प्रसाद ेअस्तय सवादःुखाना ंहावनरुपजायते प्रसि होन ेपर इस{राजयोगी} के सब दःुखों का नाि हो जाता ह;ै

    वह प्रसिचतेसः बवुद्धः आि ुपयाववतष्ठते क्योंदक प्रसिवचि की बवुद्ध िीघ्र, अच्छे स े{आ्मा में} वस्तथर होती ह।ै

    नावस्तत बवुद्धः अयुक्स्तय न चायुक्स्तय भावना। न चाभावयतः िावन्तः अिान्तस्तय कुतः सखु।ं।2/66

    अयुक्स्तय बवुद्धः न अवस्तत च जो योगी नहीं, उसकी बवुद्ध नहीं होती और {बुवद्धमानों की बुवद्ध विव से दरू}

    अयुक्स्तय भावना न चाभावयतः भोगी व्यवक् में भावना नहीं {होती} और {श्रद्धा-}भावनाहीन {मनुष्य} को

    िावंतः न अिातंस्तय सखु ंकुतः िावन्त नहीं होती; अिातं व्यवक् को सखु कहााँ होगा? {नहीं हो सकता।}

    इवन्द्रयार्ा ंवह चरता ंयत ्मनोऽनवुवधीयत।े तत ्अस्तय हरवत प्रज्ञा ंवायुः नाववमवाम्भवस।। 2/67

    यत ्मनः चरता ंइवन्द्रयार्ा ं जो मन {भोगों में} ववचरर् करती हुई {कोई भी ज्ञान या कमा}-इवन्द्रयों का

    अनवुवधीयत ेतत ्वायःु अम्भवस अनसुरर् करता ह,ै वह {मन तीव्रगवत से बहती} वाय ुिारा पानी में

    नाव ंइव अस्तय प्रज्ञा ंहरवत नाव की तरह इस {बेलगाम दौड़ते मनूँप अश्व की} बवुद्ध को हर लतेा ह।ै

    तस्तमाद्यस्तय महाबाहो वनगहृीतावन सवािः। इवन्द्रयावर् इवन्द्रयाथभे्यः तस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता।।2/68

    महाबाहो तस्तमात ्यस्तय इवन्द्रयावर् ह े{सहयोवगयों ूँपी} लम्बी भजुाओं वाल!े इसवलए वजसकी इवन्द्रयााँ

    इवन्द्रयाथभे्यः सवािः वनगहृीतावन इवन्द्रय-भोगों स े{मनसा-वाचा-कमार्ा} सब प्रकार स ेरोक ली गई हैं,

    तस्तय प्रज्ञा प्रवतवष्ठता उस {संयवमत मन वाले राजयोगी की} बवुद्ध भली-भााँवत वस्तथर ह।ै

    या वनिा सवाभतूाना ंतस्तया ंजागर्ता सयंमी। यस्तया ंजाग्रवत भतूावन सा वनिा पश्यतो मनुःे।। 2/69

    सवाभतूाना ंया वनिा तस्तया ंसयंमी सभी {मानवीय} प्रावर्यों के वलए जो {आध्या्म} रावत्र ह,ै उसमें योगी

    जागर्ता यस्तया ंभतूावन जाग्रवत जागता ह।ै वजस {भौवतकता} में प्रार्ी {स्तवगीय ददन समझ} जागता ह,ै

    सा पश्यतः मनुःे वनिा वह {सच्चीगीता एडवांस ज्ञान में मंथनकताा} मननिील मवुन के वलए रावत्र ह।ै

    आपयूामार् ंअचलप्रवतष्ठ ंसमदु्र ंआपः प्रवविवन्त यित।्

  • तित ्कामाः य ंप्रवविवन्त सव ेस िाहन्त ंआप्नोवत न कामकामी।। 2/70

    आपयूामार् ंअचलप्रवतष्ठ ंसमदु्र ंयित ् चारों ओर स ेभरपरू अचल प्रवतष्ठा वाल ेसमदु्र में जैस े{और जब}

    आपः प्रवविवन्त तित ्य ंसव ेकामाः* जलधाराएाँ प्रवेि पाती हैं, वसै ेही वजसकी {अच्छी-बुरी अपनी} सब इच्छाएाँ

    प्रवविवन्त {ज्ञान-सागर समदिी विवबाबा की शे्रष्ठतम मत में} प्रविे पाती हैं,

    स िाहंत ंआप्नोवत कामकामी न वह िावंत को पाता ह;ै {*सासंाररक} कामनाओं का इच्छुक नहीं पाता ह।ै

    *{तुम बच्च ेजानत ेहो हमको बाप (भगवान) वमला तो सब-कुछ वमला।} (मु.ता.27/6/1965 पृ.2 आदद)

    ववहाय कामान्यः सवाान्पमुान ्चरवत वनःस्तपहृः। वनमामो वनरहङ्खकारः स िावन्तमवधगच्छवत।।2/71

    यः पमुान ्सवाान ्कामान ्ववहाय जो परुुष सारी {श्रीमतववहीन सांसाररक, भौवतक} कामनाओं को छोड़कर,

    वनःस्तपहृः वनमामः वनरहकंारः लालसारवहत, ममताहीन {और} वनरहकंारी {वनमाान–निवचत} भाव का

    चरवत सः िाहंत ंअवधगच्छवत आचरर् करता ह,ै वह {दीघाकालीन नैवष्ठकी} िावंत प्रात करता ह।ै

    एषा ब्राह्मी वस्तथवतः पाथा ननैा ंप्राप्य ववमहु्यवत। वस्तथ्वा अस्तया ंअन्तकालऽेवप ब्रह्मवनवाार् ंऋच्छवत।।2/72

    पाथा एषा ब्राह्मी वस्तथवतः ह ेअजुान! यह परंब्रह्म स ेउ्पि {सवोत्त्कृष्ट अव्यक् और अववनािी} अवस्तथा ह।ै

    एना ंप्राप्य न ववमहु्यवत इस ेप्रात करके {मनुष्य दकसी व्यवक् या वस्ततु के} मोह में नहीं पड़ता {और}

    अन्तकाल ेअवप अस्तया ंवस्तथ्वा {महाववनाि की} महामृ् य ुमें भी इस {अव्यक् और अववनािी अवस्तथा} में वस्तथर हो

    ब्रह्मवनवाार् ंऋच्छवत {वभि-2 पंचमुखी ब्रह्माओं में से ऊध्वामुखी} परंब्रह्म के वनवाार्धाम को पाता ह।ै