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प्रतिज्ञा - Hindustan Books · 2 अध्याय 1 दोवकी - 'जा कर समझाओ-बुझाओ और क्या करॆगो। उनसोकहॆ,

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Page 1: प्रतिज्ञा - Hindustan Books · 2 अध्याय 1 दोवकी - 'जा कर समझाओ-बुझाओ और क्या करॆगो। उनसोकहॆ,

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प्रतिज्ञा प्रेमचंद

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अध्याय 1 देवकी - 'जा कर समझाओ-बझुाओ और क्या करोगे। उनसे कहो, भयैा, हमारा डोंगा क्यों मझधार में डुबाए देि ेहो। िमु घर के लड़के हो। िमुसे हमें ऐसी आशा न थी। देखो कहि ेक्या हैं।'

देवकी - 'आखखर क्यों? कोई हरज है?'

देवकी ने इस आपत्ति का महत्व नहीं समझा। बोली - 'यह िो कोई बाि नहीं आज अगर कमलाप्रसाद मसुलमान हो जाए, िो क्या हम उसके पास आना-जाना छोड़ देंगे? हमसे जहााँ िक हो सकेगा, हम उसे समझाएाँगे और उसे सपुथ पर लाने का उपाय करेंगे।'

देवकी - 'नहीं, क्षमा कीजजए। इस जाने से न जाना ही अच्छा। मैं ही कल बलुवा ल ाँगी।'

देवकी - 'पे्रमा उन लड़ककयों में नहीं कक िमु उसका त्तववाह जजसके साथ चाहो कर दो। जरा जा कर उसकी दशा देखो िो माल म हो। जब से यह खबर ममली है, ऐसा माल म होिा है कक देह में प्राण ही नहीं। अकेले छि पर पड़ी हुई रो रही है।'

देवकी - 'कौन! मैं कहिी ह ाँ कक वह इसी शोक में रो-रो कर प्राण दे देगी। िमु अभी उसे नहीं जानि।े'

बदरीप्रसाद बाहर चले गए। देवकी बड़ ेअसमजंस में पड़ गई। पति के स्वभाव से वह पररचचि थी, लेककन उन्हें इिना त्तवचार-श न्य न समझिी थी। उसे आशा थी कक अमिृराय समझाने से मान जाएाँगे, लेककन उनके पास जाए कैसे। पति से रार कैसे मोल ले।

देवकी ने कहा- 'रोओ मि बेटी, मैं कल उन्हें बलुाऊाँ गी। मेरी बाि वह कभी न टालेंगे।'

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देवकी ने त्तवस्मय से पे्रमा की ओर देखा, लड़की यह क्या कह रही है, यह उसकी समझ में न आया।

देवकी ने कहा - 'और िरेा क्या हाल होगा, बेटी?'

देवकी ने आाँस भरी आाँखों से कहा - 'मााँ-बाप ककसके सदा बठेै रहि ेहैं बटेी! अपनी आाँखों के सामने जो काम हो जाए, वही अच्छा! लड़की िो उनकी नहीं क्वााँरी रहने पािी, जजनके घर में भोजन का ठठकाना नहीं। मभक्षा मााँग कर लोग कन्या का त्तववाह करि ेहैं। मोहल्ले में कोई लड़की अनाथ हो जािी है, िो चंदा मााँग कर उसका त्तववाह कर ठदया जािा है। मेरे यहााँ ककस बाि की कमी है। मैं िमु्हारे मलए कोई और वर िलाश कराँ गी। यह जाने-सनेु आदमी थे, इिना ही था, नहीं िो बबरादरी में एक से एक पड़ ेहुए हैं। मैं कल ही िमु्हारे बाब जी को भेजिी ह ाँ।'

प्रेमा ने जमीन की िरफ देखि ेहुए कहा - 'नहीं अम्मााँ जी, मेरे मलए आप कोई कफक्र न करें। मैंने क्वााँरी रहने का तनश्चय कर मलया है।'

कमलाप्रसाद ने आि-ेही-आि ेकहार से प छा - 'बरफ लाए?'

कमलाप्रसाद ने गरज कर कहा - 'जोर स ेबोलो, बरफ लाए कक नहीं? मुाँह में आवाज नहीं है?'

कहार ने देखा कक अब बबना मुाँह खोले कानों के उखड़ जाने का भय है, िो धीरे स ेबोला - 'नहीं, सरकार।'

कहार - 'पसैे न थे।'

कहार - 'हााँ हुज र, ककसी ने सनुा नहीं।'

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कमलाप्रसाद ने कपड़ ेभी नहीं उिारे। क्रोध में भरे हुए घर में आ कर मााँ से प छा - 'क्या अम्मााँ, बदल िमुसे बफफ के मलए पसैे लेने आया था?'

कमलाप्रसाद - 'नहीं, उनसे िो भेंट नहीं हुई। उनकी िरफ गया िो था, लेककन जब सनुा कक वह ककसी सभा में गए हैं, िो मैं मसनेमा चला गया। सभाओं का िो उन्हें रोग है और मैं उन्हें बबल्कुल कफज ल समझिा ह ाँ। कोई फायदा नहीं। बबना व्याख्यान सनेु भी आदमी जीिा रह सकिा है और व्याख्यान देने वालों के बगरै भी दतुनया के रसािल चले जाने की सभंावना नहीं। जहााँ देखो वक्िा-ही-वक्िा नजर आि ेहैं, बरसािी मेढकों की िरह टरफ-टरफ ककया और चलि ेहुए। अपना समय गाँवाया और द सरों को हैरान ककया। सब-के-सब म खफ हैं।'

कमलाप्रसाद ने जोर से कहकहा मार कर कहा - 'और ये सभाओंवाले क्या करेंगे। यही सब िो इन सभी को स झिी है। लाला अब ककसी त्तवधवा से शादी करेंगे। अच्छी बाि है, मैं जरर बाराि में जाऊाँ गा, चाहे और कोई जाए या न जाए। जरा देख ाँ, नए ढंग का त्तववाह कैसा होिा है? वहााँ भी सब व्याख्यानबाजी करेंगे। इन लोगों के ककए और क्या होगा। सब-के-सब म खफ हैं, अक्ल ककसी को छ नहीं गई।'

कमलाप्रसाद- 'इस वक्ि िो बादशाह भी बलुाए िो न जाऊाँ । हााँ, ककसी ठदन जा कर जरा कुशल-क्षमे प छ आऊाँ गा। मगर है बबल्कुल सनकी। मैं िो समझिा था, इसमें कुछ समझ होगी। मगर तनरा पोंगा तनकला। अब बिाओ, बहुि पढ़ने से क्या फायदा हुआ? बहुि अच्छा हुआ कक मैंने पढ़ना छोड़-छाड़ ठदया। बहुि पढ़ने से बदु्चध भ्रष्ट हो जािी है। जब आाँखें कमजोर हो जािी हैं, िो बदु्चध कैसे बची रह सकिी है? िो कोई त्तवधवा भी ठीक हो गई कक नहीं? कहााँ हैं ममसराइन, कह दो अब िमु्हारी चााँदी है, कल ही सदेंशा भेज दें। कोई और न जाए िो मैं जाने को ियैार ह ाँ। बड़ा मजा रहेगा। कहााँ हैं ममसरानी, अब उनके भाग्य चमके। रहेगी बबरादरी ही की त्तवधवा न? कक बबरादरी की भी कैद नहीं रही?'

कमलाप्रसाद - 'यह सभावाले जो कुछ न करें, वह थोड़ा। इन सभी को बठेै-बठेै ऐसी ही बेपर की उड़ाने की स झिी है। एक ठदन पजंाब से कोई बौखल आया था, कह गया, जाि-पााँि िोड़ दो, इससे देश में फ ट बढ़िी है। ऐसे ही एक और जााँगल आ कर कह गया, चमारों-पामसयों को भाई समझना चाठहए। उनसे ककसी िरह का परहेज न करना चाठहए। बस, सब-के-सब, बठेै-बठेै यही सोचा करि ेहैं कक कोई नई बाि तनकालनी चाठहए। बडु्ढे गांधी जी को और कुछ न स झी िो स्वराज्य ही का डकंा पीट चले। सबों ने बदु्चध बेच खाई है।'

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प णाफ को देखि ेही पे्रमा दौड़ कर उसके गले से मलपट गई। पड़ोस में एक पडंडि वसिं कुमार रहि ेथे। ककसी दफ्िर में क्लकफ थे। प णाफ उन्हीं की स्री थी, बहुि ही सुदंर, बहुि ही सशुील। घर में द सरा कोई न था। जब दस बजे पडंडि जी दफ्िर चले जाि,े िो यहीं चली आिी और दोनों सहेमलयााँ शाम िक बठैी हाँसिी-बोलिी रहिीं। प्रेमा को इिना प्रेम था कक यठद ककसी ठदन वह ककसी कारण से न आिी िो स्वय ंउसके घर चली जािी। आज वसिं कुमार कहीं दावि खाने गए थे। प णाफ का जी उब उठा, यहााँ चली आई। पे्रमा उसका हाथ पकड़ ेहुए ऊपर अपने कमरे में ले गई।

प्रेमा - 'भयैा में ककसी िरफ िाकने की लि नहीं है। यही िो उनमें एक गणु है। पतिदेव कहीं गए हैं क्या?'

प्रेमा - 'सभा में नहीं गए? आज िो बड़ी भारी सभा हुई है।'

प्रेमा - 'आज की सभा देखने लायक थी। िमु होिी िो मैं भी जािी, समाज सधुार पर एक महाशय का बहुि अच्छा व्याख्यान हुआ।'

पे्रमा ने हाँस कर कहा - 'नहीं बहन, समाज में स्री और परुुष दोनों ही हैं और जब िक दोनों की उन्नति न होगी, जीवन सखुी न होगा। परुुष के त्तवद्वान होने से क्या स्री त्तवदषुी हो जाएगी? परुुष िो आखखरकार सादे ही कपड़ ेपहनि ेहैं, कफर जस्रयााँ क्यों गहनों पर जान देिी हैं? परुषों में िो ककिने ही क्वााँरे रह जाि ेहैं, जस्रयों को क्यों बबना त्तववाह ककए जीवन व्यथफ जान पड़िा ? बिाओ? मैं िो सोचिी ह ाँ, क्वााँरी रहने में जो सखु है, वह त्तववाह करने में नहीं है।'

पे्रमा ने अमिृराय की प्रतिज्ञा का हाल न कहा। वह जानिी थी कक इससे प णाफ की तनगाह में उनका आदर बहुि कम जो जाएगा। बोली - 'वह स्वय ंत्तववाह न करेंगे।'

पे्रमा - 'नहीं बहन, झ ठ नहीं है। त्तववाह करने की इच्छा नहीं है। शायद कभी नहीं थी। दीदी के मर जाने के बाद, वह कुछ त्तवरक्ि-से हो गए थे। बाब जी के बहुि घेरने पर और मझु पर दया करके वह त्तववाह

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करने पर ियैार हुए थ,े पर अब उनका त्तवचार बदल गया है और मैं भी समझिी ह ाँ कक जब एक आदमी स्वय ंगहृस्थी के झंझट में न फाँ स कर कुछ सेवा करना चाहिा है, िो उसके पााँव की बेड़ी न बनना चाठहए। मैं िमुसे सत्य कहिी ह ाँ, प णाफ, मझुे इसका दुुःख नहीं है, उनकी देखा-देखी मैं भी कुछ कर जाऊाँ गी।'

प्रेमा - 'बबना कहे भी िो आदमी अपनी इच्छा प्रकट कर सकिा है ।'

प्रेमा - 'नहीं प णाफ, िमु्हारे परैों पड़िी ह ाँ। पर-वर न मलखना, मैं ककसी के शभु-सकंल्प में त्तवघ्न न डाल ाँगी। मैं यठद और कोई सहायिा नहीं कर सकिी, िो कम-से-कम उनके मागफ का कंटक न बन ाँगी।'

प्रेमा - 'ऐसा कोई दुुःख नहीं है, जो आदमी सह न सके। वह जानि ेहैं कक मझुे इससे दुुःख नहीं, हषफ होगा, नहीं िो वह कभी यह इरादा न करि।े मैं ऐसे सज्जन प्राणी का उत्साह बढ़ाना अपना धमफ समझिी ह ाँ। उसे गहृस्थी में नहीं फाँ साना चाहिी।'

प्रेमा - 'िो कफर उन्हें भी होगा।'

प्रेमा - 'िो मैं भी अपना हृदय कठोर बना ल ाँगी।'

प्रेमा ने हारमोतनयम साँभाला और प णाफ गाने लगी।

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अध्याय 2 काशी के आयफ-मठंदर में पडंडि अमरनाथ का व्याख्यान हो रहा था। श्रोिा लोग मरंमगु्ध से बठेै सनु रहे थे। प्रोफेसर दाननाथ ने आगे खखसक कर अपने ममर बाब अमिृराय के कान में कहा - 'रटी हुई स्पीच है।' अमिृराय स्पीच सनुने में िल्लीन थे। कुछ जवाब न ठदया।

अमिृराय ने कफर भी कुछ जवाब न ठदया। एक क्षण के बाद दाननाथ ने कफर कहा - 'भाई, मैं िो जािा ह ाँ।'

दाननाथ - 'िमु कब िक बठेै रहोगे?'

दाननाथ - 'बस, हो तनरे बदु्ध , अरे स्पीच में है क्या? रट कर सनुा रहा है।'

दाननाथ - 'अजी घटंों बोलेगा। रााँड़ का चखाफ है या स्पीच है।'

दाननाथ - 'पछिाओगे। आज प्रेमा भी खेल में आएगी।'

दाननाथ - 'मझुे क्या गरज पड़ी है जो आपकी िरफ से क्षमा मााँगिा कफराँ ।'

दाननाथ इिनी आसानी से छोड़ने वाले आदमी न थे। घड़ी तनकाल कर देखी, पहल बदला और अमरनाथ की ओर देखन ेलगे। उनका ध्यान व्याख्यान पर नहीं, पडंडि जी की दाढ़ी पर था। उसके ठहलने में उन्हें बड़ा आनदं आया। बोलने का मजफ था। ऐसा मनोरंजक दृश्य देख कर वह चुप कैसे रहि?े अमिृराय का हाथ दबा कर कहा - 'आपकी दाढ़ी ककिनी सफाई से ठहल रही है, जी चाहिा है, नोच कर रख ल ाँ।'

अमरनाथ जी ने कहा - 'मैं आपके सामने व्याख्यान देने नहीं आया ह ाँ।'

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अमरनाथ - 'बािें बहुि हो चुकीं, अब काम करने का समय है।'

अमरनाथ - 'आप लोगों में जजन महाशयों को पत्नी-त्तवयोग हो चुका है, वह कृपया हाथ उठाएाँ।'

अमरनाथ - 'आप लोगों में ककिने महाशय ऐसे हैं, जो वधैव्य की भाँवर में पड़ी हुई अबलाओ ंके साथ अपने किफव्य का पालन करने का साहस रखि ेहैं। कृपया वे हाथ उठाए रहें।'

दाननाथ ने अमिृराय के कान में कहा - 'यह िमु क्या कर रहे हो! हाथ नीचे करो।'

वक्िा ने कहा - 'इिनी बड़ी सभा में केवल एक हाथ उठा देखिा ह ाँ। क्या इिनी बड़ी सभा में केवल एक ही हृदय है, और सब पाषाण हैं?'

दाननाथ - 'मझुमें नक्क बनने का साहस नहीं है।'

सभा त्तवसजजफि हो गई। लोग अपने-अपने घर चले। पडंडि अमरनाथ भी त्तवदा हुए। केवल एक मनषु्य अभी िक मसर झकुाए सभा-भवन में बठैा हुआ था। यह बाब अमिृराय थे।

अमिृराय ने चौंक कर कहा - 'हााँ-हााँ, चलो।'

दाननाथ के पेट में च हे दौड़ रहे थे। बोले - 'आज िमु्हें यह क्या स झी।'

दाननाथ - 'पे्रमा सनेुगी िो क्या कहेगी?'

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दाननाथ - 'अजी जाओ भी, बािें बनाि ेहो। उसे िमुसे ककिना पे्रम है, िमु ख ब जानि ेहो। यद्यत्तप अभी त्तववाह नहीं हुआ, लेककन सारा शहर जानिा है कक वह िमु्हारी माँगेिर है। सोचो, उसे िमु ककिनी बार प्रेम-पर मलख चुके हो। िीन साल से वह िमु्हारे नाम पर बठैी हुई है। भले आदमी, ऐसा रत्न िमु्हें ससंार में और कहााँ ममलेगा? अगर िमुने उससे त्तववाह न ककया िो िमु्हारा जीवन नष्ट हो जाएगा। िमु किफव्य के नाम पर जो चाहे करो पर उसे अपने हृदय से नही ंतनकाल सकि।े'

दाननाथ ने अमरनाथ का नाम आि ेही नाक मसकोड़ कर कहा - 'क्या कहना है, वाह! रट कर एक व्याख्यान दे ठदया और िमु लट्ट हो गए। वह बेचारे समाज की क्या खाक व्यवस्था करेंगे? यह अच्छा मसद्धांि है कक जजसकी पहली स्री मर गई हो, वह त्तवधवा से त्तववाह करे!'

दाननाथ - 'बस, िमु्हारे न्याय-पथ पर चलने ही से िो सारे ससंार का उद्धार हो जाएगा। िमु अकेले कुछ नहीं कर सकि।े हााँ, नक्क बन सकि ेहो!'

दाननाथ सरल स्वभाव के मनषु्य थे। जीवन के सरलिम मागफ पर चलने ही में वह सिंषु्ट थे। ककसी मसद्धांि या आदशफ के मलए कष्ट सहना उन्होंने न सीखा था। वह एक कॉलेज में अध्यापक थे। दस बजे कॉलेज जाि।े एक बजे लौट आि।े बाकी सारा ठदन सरै-सपाटे और हाँसी-खेल में काट देि ेथे।

दाननाथ यह लबंा व्याख्यान सनु कर बोले - 'िो िमुने तनश्चय कर मलया?'

दाननाथ - 'और पे्रमा?'

दाननाथ ने तिरस्कार-भाव से कहा - 'क्या बािें करि ेहो। िमु समझि ेहो, प्रेमा कोई बाजार का सौदा है, जी चाहा मलया, जी चाहा न मलया। प्रेम एक बीज है, जो एक बार जम कर कफर बड़ी मजुश्कल से उखड़िा है। कभी-कभी िो जल, प्रकाश और वाय ुबबना ही जीवन पयिं जीत्तवि रहिा है। पे्रमा केवल िमु्हारी माँगेिर नहीं है, वह िमु्हारी पे्रममका भी है। यह स चना उसे ममलेगी िो उसका हृदय भग्न हो जाएगा। कह नहीं सकिा, उसकी क्या दशा हो जाए। िमु उस पर घोर अन्याय कर रहे हो।'

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बोले - 'अगर वह उिनी ही सहृदय है, जजिना मैं समझिा ह ाँ, िो मेरी प्रतिज्ञा पर उसे दुुःख न होना चाठहए। मझु ेत्तवश्वास है कक उसे सनु कर हषफ होगा, कम-से-कम मझुे ऐसी ही आशा है।'

अमिृराय का मकान आ गया। टमटम रक गया। अमिृराय उिर कर अपने कमरे की िरफ चले। दाननाथ जरा देर िक इंिजार में खड़ ेरहे कक यह मझु ेबलुावें िो जाऊाँ , पर जब अमिृराय ने उनकी िरफ कफर कर भी न देखा, िो उन्हें भय हुआ, मेरी बािों से कदाचचि इन्हें दुुःख हुआ है। कमरे के द्वार पर जा कर बोले - 'क्यों भाई, मझुसे नाराज हो गए क्या?'

दाननाथ ने स्नेह से अमिृराय का हाथ पकड़ मलया और बोले - 'कफर सोच लो, ऐसा न हो पीछे पछिाना पड़।े'

यह सकेंि ककसकी ओर था, दाननाथ से तछपा न रह सका। जब अमिृराय की पहली स्री जीत्तवि थी, उसी समय दाननाथ से पे्रमा के त्तववाह की बािचीि हुई थी। जब पे्रमा की बहन का देहांि हो गया िो उसके त्तपिा लाला बदरीप्रसाद ने दाननाथ की ओर से मुाँह फेर मलया । दाननाथ त्तवद्या, धन और प्रतिष्ठा ककसी बाि में भी अमिृराय की बराबरी न कर सकि ेथे। सबसे बड़ी बाि यह थी कक पे्रमा भी अमिृराय ही की ओर झकुी हुई माल म होिी थी। दाननाथ इिने तनराश हुए कक आजीवन अत्तववाठहि रहने का तनश्चय कर मलया। दोनों ममरों में ककसी प्रकार का द्वेष-भाव न आया। दाननाथ यों देखने में िो तनत्य प्रसन्नचचि रहि ेथे, लेककन वास्िव में वह ससंार स ेत्तवरक्ि से हो गए थे। उनका जीवन ही आनदं-त्तवहीन हो गया था। अमिृराय को अपने त्तप्रय ममर की आंिररक व्यथा देख-देख कर दुुःख होिा था। वह अपने चचि को इस परीक्षा के मलए महीनों से ियैार कर रहे थे। ककंि ुपे्रमा-जैसी अनपुम सुदंरी का त्याग करना आसान न था। ऐसी दशा में अमिृराय की ये बािें सनु कर दाननाथ का हृदय आशा से पलुककि हो उठा। जजस आशा को उन्होंने हृदय को चीर कर तनकाल डाला था, जजसकी इस जीवन में वह कल्पना भी न कर सकि ेथे, जजसकी अतंिम ज्योति बहुि ठदन हुए शांि हो चुकी थी, वही आशा आज उनके ममफस्थल को चंचल करने लगी। इसके साथ ही अमिृराय के देवोपम त्याग ने उन्हें वशीभ ि कर मलया। वह गदगद कंठ से बोले - 'क्या इसीमलए िमुने आज प्रतिज्ञा कर डाली? अगर वह ममर िमु्हारी इस उदारिा से लाभ उठाए, िो मैं कह ाँगा वह ममर नहीं, शर ुहै और यही क्या तनश्चय है कक इस दशा में पे्रमा का त्तववाह िमु्हारे उसी ममर से हो?'

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दाननाथ ने तिरस्कार का भाव धारण करके कहा - 'िमु उसे इिना नीच समझना चाहि ेहो, िो समझ लो, लेककन मैं कहे देिा ह ाँ कक यठद मैं उस ममर का ठीक अनमुान कर सका ह ाँ, िो वह अपने बदले िमु्हें तनराशा की भेंट न होने देगा।'

यह कहि ेहुए दाननाथ बाहर तनकल आए और अमिृराय द्वार पर खड़,े उन्हें रोकने की इच्छा होने पर भी बलुा न सके।

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अध्याय 3 होली का ठदन आया। पडंडि वसिं कुमार के मलए यह भगं पीने का ठदन था। महीनों पहले से भगं माँगवा रखी थी। अपने ममरों को भगं पीने का नेविा दे चुके थे। सवेरे उठि ेही पहला काम जो उन्होंने ककया, वह भगं धोना था।

सहसा बाब कमलाप्रसाद आ पहुाँचे। यह जमघट देख कर बोले - 'क्या हो रहा है? भई, हमारा ठहस्सा भी है न?'

कमलाप्रसाद - 'अजी मीठी त्तपलाओ, नमकीन क्या? मगर यार, केसर और केवड़ा जरर हो, ककसी को भेजजए मेरे यहााँ से ले आए। ककसी लौंड ेको भेजजए जो मेरे घर जा कर पे्रमा से मााँग लाए। कहीं धमफपत्नी जी के पास न चला जाए, नहीं िो मफु्ि गामलयााँ ममलें। त्योहार के ठदन उनका ममजाज गरम हो जाया करिा है। यार वसिं कुमार, धमफपजत्नयों को प्रसन्न रखने का कोई आसान नसु्खा बिाओ। मैं िो िगं आ गया।'

कमलाप्रसाद - 'िो यार, िमु बड़ ेभाग्यवान हो। क्या प णाफ िमुसे कभी नहीं रठिी?'

कमलाप्रसाद - 'कभी ककसी चीज के मलए हठ नहीं करिी?'

कमलाप्रसाद - 'िो यार, िमु बड़ ेभाग्यवान हो। यहााँ िो उम्र कैद हो गई है। अगर घड़ी भर भी घर से बाहर रह ाँ, िो जवाब-िलब होने लगे। मसनेमा रोज जािा ह ाँ और रोज घटंों मनावन करनी पड़िी है।'

कमलाप्रसाद - 'वाह वाह! यह िो िमुने ख ब कही। कसम अल्लाह पाक की, ख ब कही। जजस कल वह बबठाए, उस कल बठै जाऊाँ ? कफर झगड़ा ही न हो, क्यों? अच्छी बाि है। कल ठदन भर घर से तनकल ाँगा ही नहीं, देख ाँ िब क्या कहिी है। देखा, अब िक लौंडा केसर और केवड़ा ले कर नहीं लौटा। कान में भनक पड़ गई होगी, प्रेमा को मना कर ठदया होगा। भाई, अब िो नहीं रहा जािा, आज जो कोई मेरे मुाँह लगा िो बरुा होगा। मैं अभी जा कर सब चीजें भेज देिा ह ाँ। मगर जब िक मैं न आऊाँ , आप न

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बनवाइएगा। यहााँ इस फन के उस्िाद हैं। मौरसी बाि है। दादा िोले भर का नाश्िा करि ेहैं। उम्र में कभी एक ठदन का भी नागा नही ंककया। मगर क्या मजाल कक नशा हो जाए।'

प णाफ ने उबटन एक प्याली में उठाि ेहुए कहा -' यह देखो, मैं िो पहले ही से बठैी हुई ह ाँ।'

प णाफ - 'पहले जरा यहााँ आ कर बठै जाव, उबटन िो मल द ाँ, कफर नहाने जाना।'

प णाफ - 'वाह, उबटन क्यों न मलवाओग?े आज की िो यह रीति है, आके बठै जाव।'

प णाफ ने लपक कर उनका हाथ पकड़ मलया और उबटन भरा हाथ उनकी देह में पोि ठदया। िब बोली -'सीधे से कहिी थी, िो नही ंमानि ेथे अब िो बठैोगे।'

प णाफ - 'अब गगंा जी कहााँ जाओगे। यहीं नहा लेना।।'

प णाफ - 'अच्छा, िो जल्दी लौट आना, यह नहीं कक इधर-उधर िरैने लगो। नहाि ेवक्ि िमु बहुि द र िरै जाया करि ेहो।'

मगर वहााँ जा कर देखा िो फ ल इिनी ही द र और आगे थे। अब कुछ थकान माल म होने लगी थी, ककंि ुबीच में कोई रेि ऐसा न था कक जजस पर बठै कर दम लेि।े आगे बढ़ि ेही गए। कभी हाथों से जोर मारि,े कभी परैों से जोर लगाि ेफ लों िक पहुाँचे। पर, उस वक्ि िक सारे अगं मशचथल हो गए थे। यहााँ िक कक फ लों को लेने के मलए जब हाथ लपकाना चाहा, िो हाथ न उठ सका। आखखर उनको दााँिों में दबाया और लौटे। मगर, जब वहााँ से उन्होंने ककनारे की िरफ देखा िो ऐसा माल म हुआ, मानो एक हजार कोस की मजंजल है। शरीर बबल्कुल अशक्ि हो गया था और जल-प्रवाह भी प्रतिक ल था। उनकी ठहम्मि छ ट गई। हाथ-पााँव ढीले पड़ गए। आस-पास कोई नाव या डोंगी न थी और न ककनारे िक आवाज ही पहुाँच सकिी थी। समझ गए, यहीं जल-समाचध होगी। एक क्षण के मलए प णाफ की याद आई। हाय, वह उनकी बाट देख रही होगी, उसे क्या माल म कक वह अपनी जीवन-लीला समाप्ि कर चुके। वसिं कुमार ने

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एक बार कफर जोर मारा, पर हाथ पााँव ठहल न सके। िब उनकी आाँखों से आाँस बहने लगे। िट पर लोगों ने ड बि ेदेखा। दो-चार आदमी पानी में क दे, पर एक ही क्षण में वसिं कुमार लहरों में समा गए। केवल कमल के फ ल पानी पर िरैि ेरह गए, मानो उस जीवन का अिं हो जाने के बाद उसकी अिपृ्ि लालसा अपनी रक्ि-रंजजि छटा ठदखा रही हो।

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अध्याय 4 लाला बदरीप्रसाद की सज्जनिा प्रमसद्ध थी। उनसे ठग कर िो कोई एक पसैा भी न ले सकिा था, पर धमफ के त्तवषय में वह बड़ ेही उदार थे। स्वाचथफयों से वह कोसों भागि ेथे, पर दीनों की सहायिा करने में भी न च कि ेथे। कफर प णाफ िो उनकी पड़ोमसन ही नहीं, ब्राह्मणी थी। उस पर उनकी परुी की सहेली। उसकी सहायिा वह क्यों न करि?े प णाफ के पास हल्के दामों के दो-चार गहनों के मसवा और क्या था। षोडसी के ठदन उसने वे सब गहने ला कर लाला जी के सामने रख ठदए, और सजल नेरों से बोली - 'मैं अब इन्हें रख कर क्या कराँ गी।'

बदरीप्रसाद ने करुण-कोमल स्वर में कहा - 'मैं इन्हें ले कर क्या कराँ गा, बेटी? िमु यह न समझो कक मैं धमफ या पणु्य समझ कर यह काम कर रहा ह ाँ। यह मेरा किफव्य है। इन गहनों को अपने पास रखो। कौन जाने ककस वक्ि इनकी जररि पड़।े जब िक मैं जीिा ह ाँ, िमु्हें अपनी बेटी समझिा रह ाँगा। िमु्हें कोई िकलीफ न होगी।'

षोडसी बड़ी ध म से हुई। कई सौ ब्राह्मणों ने भोजन ककया। दान-दक्षक्षणा में भी कोई कमी न की गई।

राि के बारह बज गए थे। लाला बदरीप्रसाद ब्राह्मणों को भोजन करा के लेटे, िो देखा - प्रेमा उनके कमरे में खड़ी है। बोले - 'यहााँ क्यों खड़ी हो, बेटी - राि बहुि हो गई, जा कर सो रहो।'

प्रेमा - 'आपने अभी कुछ भोजन नहीं ककया है न?'

बदरीप्रसाद - 'अब इिनी राि गए मैं भोजन न कराँ गा। थक भी बहुि गया ह ाँ। लेटि ेही लेटि ेसो जाऊाँ गा।'

यह कह कर बदरीप्रसाद चारपाई पर बठै गए और एक क्षण के बाद बोले - 'क्यों बेटी, प णाफ के मकेै कोई नहीं है? मैंने उससे नहीं प छा कक शायद उसे कुछ दुुःख हो।'

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प्रेमा - 'मकेै में कौन है। मााँ-बाप पहले ही मर चकेु थे, मामा ने त्तववाह कर ठदया। मगर जब से त्तववाह हुआ, कभी झााँका िक नहीं। ससरुाल में भी सगा कोई नहीं है। पडंडि जी के दम से नािा था।'

बदरीप्रसाद ने बबछावन की चादर बराबर करि ेहुए कहा - 'मैं सोच रहा ह ाँ, प णाफ को अपने ही घर में रख ाँ िो क्या हरज है? अकेली औरि कैस ेरहेगी।'

प्रेमा - 'होगा िो बहुि अच्छा, पर अम्मााँ जी मानें िब िो?'

बदरीप्रसाद - 'मानेगी क्यों नहीं, प णाफ िो इनकार न करेगी?'

प्रेमा - 'प छ ाँगी। मैं समझिी ह ाँ उन्हें इनकार न होगा।'

बदरीप्रसाद - 'अच्छा मान लो, वह अपने ही घर में रहे िो उसका खचफ बीस रुपए में चल जाएगा न?'

प्रेमा ने आर्द्फ नेरों स ेत्तपिा की ओर देख कर कहा - 'बड़ ेमजे से। पडंडि जी पचास रुपए ही िो पाि ेथे।'

बदरीप्रसाद ने चचतंिि भाव से कहा - 'मेरे मलए बीस, पच्चीस, साठ सब बराबर हैं, लेककन मझुे अपनी जजंदगी ही की िो नहीं सोचनी है। अगर आज मैं न रह ाँ, िो कमलाप्रसाद कौड़ी फोड़ कर न देगा, इसमलए कोई स्थायी बदंोबस्ि कर जाना चाहिा ह ाँ। अभी हाथ में रुपए नहीं हैं, नहीं िो कल ही चार हजार रुपए उनके नाम ककसी अच्छे बैंक में रख देिा। स द से उसकी परवररश होिी रहिी। यह शिफ कर देिा कक म ल में से कुछ न ठदया जाए।'

सहसा कमलाप्रसाद आाँखें मलि ेहुए आ कर खड़ ेहो गए और बोले - 'अभी आप सोए नहीं? गरमी लगिी हो, िो पखंा ला कर रख द ाँ। राि िो ज्यादा हो गई।'

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बदरीप्रसाद - 'नहीं गरमी नहीं है। पे्रमा से कुछ बािें करने लगा था। िमुसे भी कुछ सलाह लेना चाहिा था, िो िमु आप ही आ गए। मैं यह सोच रहा ह ाँ कक प णाफ यहीं आ कर रहे िो क्या हरज है?'

कमलाप्रसाद ने आाँखें फाड़ कर कहा - 'यहााँ! अम्मााँ जी कभी न राजी होंगी।'

बदरीप्रसाद - 'अम्मााँ जी की बाि छोड़ो, िमु्हें िो कोई आपत्ति नहीं है? मैं िमुसे प छना चाहिा ह ाँ।'

कमलाप्रसाद ने दृढ़िा से कहा - 'मैं िो कभी इसकी सलाह न द ाँगा। दतुनया में सभी िरह के आदमी हैं, न जाने क्या समझें। द र िक सोचचए।'

बदरीप्रसाद - 'उसके पालन-पोषण का िो कुछ प्रबधं करना ही होगा।'

कमलाप्रसाद - 'हम क्या कर सकि ेहैं?'

बदरीप्रसाद - 'िो और कौन करेगा?'

कमलाप्रसाद - 'शहर में हमीं िो नहीं रहि।े और भी बहुि से धनी लोग हैं। अपनी हैमसयि के मिुाबबक हम भी कुछ सहायिा कर देंगे।'

बदरीप्रसाद ने कटाक्ष-भाव से कहा - 'िो चंदा खोल ठदया जाए, क्यों? अच्छी बाि है, जाओ घ म-घ म कर चंदा जमा करो।'

कमलाप्रसाद - 'मैं क्यों चंदा जमा करने लगा।'

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बदरीप्रसाद - 'िब कौन करेगा?'

कमलाप्रसाद इसका कुछ जवाब न दे सके। कुछ देर के बाद बोले - 'आखखर आपने क्या तनश्चय ककया है?'

बदरीप्रसाद - 'मैं क्या तनश्चय कराँ गा? मेरे तनश्चय का अब म ल्य ही क्या? तनश्चय िो वही है, जो िमु करो। मेरा क्या ठठकाना? आज मैं कुछ कर जाऊाँ , कल मेरी आाँख बदं होि ेही िमु उलट-पलुट दो, व्यथफ में बदनामी हो।'

कमलाप्रसाद ने बहुि दुुःखखि हो कर कहा - 'आप मझु ेइिना नीच समझि ेहैं। यह मझुे न माल म था।'

बदरीप्रसाद बेटे को बहुि प्यार करि ेथे, यह देख कर कक मेरी बाि से उसे चोट लगी है, िरंुि बाि बनाई - 'नहीं-नहीं मैं िमु्हें नीच नहीं समझिा। बहुि सभंव है कक आज हम जो बाि कर सकि ेहैं, वह कल जस्थति के बदल जाने से न कर सकें ।'

कमलाप्रसाद - 'ईश्वर न करे कक मैं वह त्तवपत्ति झेलने के मलए बठैा रह ाँ, लेककन इिना कह सकिा ह ाँ कक आप जो कुछ कर जाएाँगे, उसमें कमलाप्रसाद को कभी ककसी दशा में आपत्ति न होगी। आप घर के स्वामी हैं। आप ही ने यह सपंत्ति बनाई है। आपको इस पर प रा अचधकार है। तनश्चय करने के पहले मैं जो चाहे कह ाँ, लेककन जब आप एक बाि िय कर देंगे, िो मैं उसके त्तवरुद्ध जीभ िक न ठहलाऊाँ गा।'

बदरीप्रसाद - 'िो कल प णाफ के नाम चार हजार रुपए बैंक में जमा कर दो और यह शिफ लगा दो कक म ल में से कुछ न ले सके। उसके बाद रुपए हमारे हो जाएाँगे।'

कमलाप्रसाद को मानो चोट-सी लगी। बोले - 'ख ब सोच लीजजए।'

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बदरीप्रसाद ने तनश्चयात्मक स्वर में कहा - 'ख ब सोच मलया है। देखना केवल यह है कक इसे स्वीकार करिी है या नहीं।'

कमलाप्रसाद - 'क्या उसके स्वीकार करने में भी कोई सदेंह है?'

बदरीप्रसाद ने तिरस्कार-भाव से कहा - 'िमु्हारी यह बड़ी बरुी आदि है कक िमु सब को स्वाथी समझने लगि ेहो। कोई भला आदमी द सरों का एहसान मसर पर नहीं लेना चाहिा। मनषु्य का स्वभाव ही ऐसा है। गए घरों की बाि जाने दो, लेककन जजसमें आत्म-सम्मान का कुछ भी अशं है, वह द सरों की सहायिा नहीं लेना चाहिा। मझुे िो सदेंह ही नहीं, त्तवश्वास है कक प णाफ कभी इस बाि पर राजी न होगी। वह मेहनि-मज री कर सकेगी, िो करेगी, लेककन जब िक त्तववश न हो जाए, हमारी सहायिा कभी न स्वीकार करेगी।'

पे्रमा ने बड़ी उत्सकुिा से कहा - 'मझुे भी यह सदेंह है। राजी होगी भी िो बड़ी मजुश्कल से।'

बदरीप्रसाद - 'िमु उससे इसकी चचाफ करना। कल ही।'

प्रेमा - 'नहीं दादा, मझुसे न बनेगा। वह और मैं दोनों ही अब िक बहनों की िरह रही हैं, मझुसे इस ढंग की बाि अब न करि ेबनेगी। मैं िो रोने लग ाँगी।'

बदरीप्रसाद - 'िो मैं ही सब ठीक कर ल ाँगा। हााँ, कल शाम मझुे अवकाश न ममलगेा, िब िक िमु्हारी अम्मााँ जी से भी बािें होंगी। शायद वह उसके यहााँ रहने पर राजी हो जाएाँ।'

कमलाप्रसाद गहृ-प्रबधं में अपने को लासानी समझि ेथे। यों िो बदु्चध त्तवकास में वह अपने को अफलाि ंसे रिी-भर भी कम न समझि ेथे। पर गहृ-प्रबधं में उनकी मसद्चध सवफमान्य थी। मसनेमा रोज देखि ेथे, पर क्या मजाल थी कक जेब से एक पसैा भी खचफ करें। मनेैजर से दोस्िी कर रखी थी, उल्टे उसके यहााँ कभी-कभी दावि खा आि ेथे। पसेै का काम धेले में तनकालि ेथे और बड़ी सुदंरिा से कभी-कभी लाला

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बदरीप्रसाद से इस त्तवषय में उनकी ठन भी जाया करिी थी। ब ढे़ लाला जी बेटे की इस कुजत्सि मनोवतृ्ति पर कभी-कभी खरी-खरी कह डालि ेथे। कमलाप्रसाद समझ गए कक लाला जी इस वक्ि कोई आपत्ति न सनुेंगे, बजल्क आपत्ति से उल्टा असर होने की सभंावना थी। इसमलए उन्होंने क टनीति से काम लेने का तनश्चय ककया। प्रािुःकाल प णाफ के द्वार पर जा कर आवाज दी। प णाफ पहले िो उनसे परदा करिी थी, पर अब बहुररया बन कर बठैने से कैसे काम चल सकिा था। उन्हें अदंर बलुा मलया। बरामदे में चारपाई पड़ी हुई थी। कमलाप्रसाद बाब उस पर जा बठेै। एक क्षण में प णाफ आ कर उनके सामने खड़ी हो गई। प णाफ का माथा घ ाँघट से ढका हुआ था, पर दोनों सजल आाँखें कृिज्ञिा और त्तवनय से भरी हुई भ मम की ओर िाक रही थीं। कमलाप्रसाद उसे देख कर अवाक-सा रह गया। वह इस इरादे से आया था कक इसे ककसी भााँति यहााँ से टाल द ाँ। मकेै चले जाने की पे्ररणा कराँ । उसे इसकी जरा भी चचिंा न थी कक इस अबला का भत्तवष्य क्या होगा। उसका तनवाफह कैसे होगा, उसकी रक्षा कौन करेगा, इसका उस ेलेश-मार भी ध्यान न था। वह केवल इस समय उसे यहााँ से टाल कर अपने रुपए बचा लेना चाहिा था, पर त्तवधवा की सरल, तनष्कलकं, दीन-म ति फ देख कर उसे अपनी कुठटलिा पर लज्जा आ गई। कौन प्राणी ऐसा हृदय-हीन है जो ककसी कोमल पषु्प को िोड़ कर भाड़ में फें क दे। जीवन में पहली बार उसे सौंदयफ का आकषफण हुआ। अाँधेरे घर में दीपक जल उठा। बोले - 'िमु्हें यहााँ अब अकेले रहने में िो बड़ा कष्ट होगा। उधर पे्रमा भी अकेले घबराया करिी है। उसी घर में िमु भी क्यों न चली जाओ। क्या कोई हरज है?'

प णाफ मसर नीचा ककए एक क्षण िक सोचने के बाद बोली- 'हरज िो कुछ नहीं है, बाब जी यहााँ भी िो आप ही लोगों के भरोसे पड़ी ह ाँ।'

कमलाप्रसाद - 'िो आज चली चलो। बाब जी की भी यही इच्छा है। मैं जा कर आदममयों को असबाब ले जाने के मलए भेज देिा ह ाँ।'

प णाफ - 'नहीं बाब जी, इिनी जल्दी न कीजजए। जरा सोच लेने दीजजए।'

कमलाप्रसाद - 'इसमें सोचने की कौन-सी बाि है। अकेले कैसे पड़ी रहोगी?'

प णाफ - 'अकेली िो नहीं ह ाँ महरी भी िो यहीं सोने को कहिी है।'

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कमलाप्रसाद - 'अच्छा, वह बबल्लो। हााँ बठुढ़या है िो सीधी; लेककन टरी है। आखखर मेरे घर चलने में िमु्हें क्या असमजंस है?'

प णाफ - 'कुछ नहीं, असमजंस क्या है?'

कमलाप्रसाद - 'िो आदममयों को जा कर भेज द ाँ।'

प णाफ - 'भजे दीजजएगा, अभी जल्दी क्या है?'

कमलाप्रसाद - 'िमु व्यथफ ही इिना सकंोच कर रही हो प णाफ, क्या िमु समझिी हो िमु्हारा जाना मेरे घर के प्राखणयों को बरुा लगेगा?'

कमलाप्रसाद का अनमुान ठीक था। प णाफ को वास्िव में यही आपत्ति थी, पर वह सकंोच-वश इसे प्रकट न कर सकिी थी। उसने समझा, बाब जी ने मेरे मन की बाि िाड़ ली। इससे वह लजज्जि भी हो गई। बाब साहब के घर वालों के त्तवषय में ऐसी धारणा उस ेन करनी चाठहए थी, पर कमलाप्रसाद ने उसके सकंोच का शीघ्र ही अिं कर ठदया, बोले - 'िमु्हारा यह अनमुान बबल्कुल स्वाभात्तवक है, प णाफ लेककन सोचो, मेरे घर में ऐसा कौन-सा आदमी है जो िमु्हारा त्तवरोध कर सके। बाब जी की स्वय ंयह इच्छा है। मझुे िमु ख ब जानिी हो। प.ं वसिं कुमार से मेरी ककिनी गहरी दोस्िी थी, यह िमुसे तछपा नहीं, पे्रमा िमु्हारी सहेली ही है, अम्मााँ जी को िमुसे ककिना पे्रम है, वह िमु ख ब जानिी ही हो, रह गई समुमरा, उस ेजरा कुछ बरुा लगेगा। िमुसे कोई परदा नहीं, लेककन उसकी बािों की परवाह कौन करिा है? उसे खुश रखने का भी िमु्हें एक गरु बिाए देिा ह ाँ। कभी-कभी यह मरं फ ाँ क ठदया करना, कफर वह कभी िमु्हारी बरुाई न करेगी। बस उसकी सुदंरिा की िारीफ करिी रहना। यह न समझना कक रंभा या उवफशी कहने से वह समझ जाएगी कक यह मझु ेबना रही है। िमु चाहे जजिना बढ़ाओ, वह उसे यथाथफ ही समझगेी। इसी मरं से मैं उसे नचाया करिा ह ाँ यही मरं िमु्हें बिाए देिा ह ाँ।'

प णाफ को हाँसी आ गई, बोली - 'आप िो उनकी हाँसी उड़ा रहे हैं भला ऐसा कौन होगा, जजसे इिनी समझ न हो।'

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कमलाप्रसाद - 'इिनी समझ को िमु साधारण बाि समझ रही हो, पर यह साधारण बाि नहीं। िमुको यह सनु कर आश्चयफ िो होगा, पर अपनी िारीफ सनु कर हम इिने मिवाले हो जाि ेहैं कक कफर हममें त्तववेक की शजक्ि ही लपु्ि हो जािी है। बड़-ेसे-बड़ा महात्मा भी अपनी प्रशसंा सनु कर फ ल उठिा है। हााँ, प्रशसंा करने वाले शब्दों में भजक्ि का भाव रहना आवश्यक है। यठद ऐसा न होिा, िो कत्तवयों को झ ठी िारीफों के पलु बााँधने के मलए हमारे राजे-महाराज ेपरुस्कार क्यों देि।े बिाओ? राजा साहब िमचंे की आवाज सनु कर चौंक पड़ि ेहैं, कानों में उाँगली डाल लेि ेहैं और घर में भागि ेहैं, पर दरबार का कत्तव उन्हें वीरिा में अजुफन और र्द्ोणाचायफ से दो हाथ और ऊाँ चा उठा देिा है, िो राजा साहब की म ाँछें खखल उठिी हैं, उन्हें एक क्षण के मलए भी यह ख्याल नहीं आिा कक यह मेरी हाँसी उड़ाई जा रही है। ऐसी िारीफों में हम शब्दों को नहीं, उनके अदंर तछपे हुए भावों को ही देखि ेहैं। समुमरा रंग-रप में अपने बराबर ककसी को नहीं समझिी। न जाने उसे यह खब्ि कैसे हो गया। यह कहि ेबहुि द:ुख होिा है प णाफ, पर इस स्री के कारण मेरी जजंदगी खराब हो गई। मझुे माल म ही न हुआ कक पे्रम ककसे कहि ेहैं। मैं ससंार में सबसे अभागा प्राणी ह ाँ और क्या कह ाँ। प वफ जन्म के पापों का प्रायजश्चि कर रहा ह ाँ। समुमरा से बोलने को जी नहीं चाहिा, पर मुाँह से कुछ नहीं कहिा कक कहीं घर में कुहराम न मच जाए। लोग समझि ेहैं, मैं आवारा ह ाँ, मसनेमा और चथएटर में प्रमोद के मलए जािा ह ाँ, लेककन मैं िमुसे सत्य कहिा ह ाँ प णाफ, मैं मसनेमा में केवल अपनी हाठदफक वेदनाओं को भलुाने के मलए जािा ह ाँ, अपनी अिपृ्ि अमभलाषाओं को और कैसे शांि कराँ , ठदल की आग को कैसे बझुाऊाँ । कभी-कभी जी में आिा है, सनं्यासी हो जाऊाँ और कदाचचि एक ठदन यही करना पड़गेा। िमु समझिी होगी, यह महाशय कहााँ का पचड़ा ले बठेै। क्षमा करना, न जाने आज क्यों िमुसे ये बािें करने लगा। आज िक मैंने इन भावों को ककसी से प्रकट नहीं ककया था। व्यजक्ि हृदय ही से सहानभु ति की आशा होिी है, बस यही समझ लो। िो मैं जा कर आदममयों को भेजे देिा ह ाँ, िमु्हारा असबाब उठा ले जाएाँगे।'

प णाफ को अब क्या आपत्ति हो सकिी थी। उसका जी अब भी इस घर को छोड़ने को न चाहिा था, पर वह इस अनरुोध को टाल न सकी। उसे यह भय भी हुआ कक कहीं यह मेरे इनकार से और भी दुुःखी न हो जाएाँ। आश्रयत्तवहीन अबला के मलए इस समय तिनके का सहारा ही बहुि था, िो वह नौका की कैस ेअवहेलना करिी, पर वह क्या जानिी थी कक वह उसे उबारने वाली नौका नहीं वरन एक त्तवचचर जल-जंि ुहै, जो उसकी आत्मा को तनगल जाएगा?

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अध्याय 5 प णाफ को अपने घर से तनकलि ेसमय बड़ा दुुःख होने लगा। जीवन के िीन वषफ इसी घर में काटे थे। यहीं सौभाग्य के सखु देख,े यहीं वधैव्य के दुुःख भी देखे। अब उसे छोड़ि ेहुए हृदय फट जािा था। जजस समय चारों कहार उसका असबाब उठाने के मलए घर आए, वह सहसा रो पड़ी। उसके मन में कुछ वसेै ही भाव जाग्रि हो गए, जैसे शव को उठाि ेसमय शोकािरु प्राखणयों के मन में आ जाि ेहैं। यह जानि ेहुए भी कक लाश घर में नहीं रह सकिी, जजिनी जल्द उसका दाहससं्कार कक्रया हो जाए उिना ही अच्छा है। वे एक क्षण के मलए मोह के आवशे में आ कर पााँव से चचमट जाि ेहैं, और शोक से त्तवह्वल हो कर करण स्वर में रदन करने लगि ेहैं, वह आत्म-प्रवचंना, जजसमें अब िक उन्होंने अपने को डाल रखा था कक कदाचचि अब भी जीवन के कुछ चचह्न प्रकट हो जाएाँ, एक परदे के समान आाँखों के सामने से हट जािी है और मोह का अतंिम बधंन ट ट जािा है, उसी भााँति प णाफ भी घर के एक कोने में दीवार से मुाँह तछपा कर रोने लगी। अपने प्राणेश की स्मतृि का यह आधार भी शोक के अपार सागर में त्तवलीन हो रहा था। उस घर का एक-एक कोना उसके मलए मधुर-स्मतृियों से रंजजि था, सौभाग्य-स यफ के अस्ि हो जाने पर भी यहााँ उसकी कुछ झलक ठदखाई देिी थी। सौभाग्य-सगंीि का अिं हो जाने पर भी यहााँ उसकी प्रतिध्वतन आिी रहिी थी। घर में त्तवचरि ेहुए उसे अपने सौभाग्य का त्तवषादमय गवफ होिा रहिा था। आज सौभाग्य-स यफ का वह अतंिम प्रकाश ममटा जा रहा था, सौभाग्य-सगंीि की प्रतिध्वतन एक अनिं श न्य में ड बी जािी थी, वह त्तवषादमय गवफ हृदय को चीर कर तनकला जािा था।

सधं्या समय वह अपनी महरी बबल्लो के साथ रोिी हुई इस भााँति चली मानो कोई तनवाफमसि हो। पीछे कफर-कफर कर अपने प्यारे घर को देखिी जािी थी, मानो उसका हृदय वहीं रह गया हो।

देवकी को समुमरा की कोई बाि न भािी थी। उसका हाँसना-बोलना, चलना-कफरना, उठना-बठैना, पहनना-ओढ़ना सभी उन्हें फ हड़पन की चरम सीमा का अतिक्रमण करिा हुआ जान पड़िा था, और वह तनत्य उसकी प्रचंड आलोचना करिी रहिी थी। उसकी आलोचना में प्रेम और सद्भाव का आचधक्य था या द्वेष का, इसका तनणफय करना कठठन था। समुमरा िो द्वेष ही समझिी थी। इसीमलए वह उन्हें और भी चचढ़ािी रहिी थी - देवकी सबेरे उठने का उपदेश करिी थी, समुमरा पहर ठदन चढे़ उठिी थी, देवकी घ ाँघट तनकालने को कहिी थी, समुमरा इसके जवाब में आधा मसर खुला रखिी थी। देवकी महररयों से अलग रहने की मशक्षा देिी थी, समुमरा महररयों से हाँसी-ठदल्लगी करिी रहिी थी। समुमरा को प णाफ का यहााँ आना अच्छा नहीं लग रहा है, यह उससे तछपा न रह सका, पहले ही से उसने पति के इस प्रस्िाव पर नाक मसकोड़ी थी। पर, यह जानि ेहुए कक इनके मन में जो इच्छा है उसे यह प रा ही करके छोड़ेंगे, उसने

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त्तवरोध करके अपयश लेना उचचि न समझा था। समुमरा सास के मन के भाव िाड़ रही थी। और यह भी जानिी थी कक प णाफ भी अवश्य ही िाड़ रही है। इसमलए प णाफ के प्रति उसके मन में स्नेह और सहानभु ति उत्पन्न हो गई। अब िक देवकी प णाफ को आदशफ गठृहणी कह कर बखान करिी रहिी थी। उसको ठदखा कर समुमरा को लजज्जि करना चाहिी थी। इसमलए समुमरा प णाफ से जलिी थी। आज देवकी के मन में वह भाव न था, इसमलए समुमरा के मन में भी वह भाव न रहा।

ग्यारह बज ेथे। प णाफ प्रकाश में आाँखें हटा कर खखड़की के बाहर अधंकार की ओर देख रही थी। उस गहरे अाँधेरे में उसे ककिने सुदंर दृश्य ठदखाई दे रहे थे - वही अपना खपरैल का घर था, वही परुानी खाट थी, वही छोटा-सा आाँगन था, और उसके पतिदेव दफ्िर से आ कर उसकी ओर साहस मखु और सपे्रम नेरों से िाकि ेहुए जेब से कोई चीज तनकाल कर उसे ठदखाि ेऔर कफर तछपा लेि ेथे। वह बठैी पान लगा रही थी, झपट कर उठी और पति के दोनों हाथ पकड़ कर बोली - 'ठदखा दो क्या है? पति ने मटु्ठी बदं कर ली। उसकी उत्सकुिा और बढ़ी उसने ख ब जोर लगा कर मटु्ठी खोली, पर उसमें कुछ न था। वह केवल कौिकु था। आह! उस कौिकु, उस क्रीड़ा में उसे अपने जीवन की व्याख्या तछपी हुई माल म हो रही थी।'

प णाफ ने आाँस पोंछ डाले और आवाज साँभाल कर बोली - 'यह िो िमु झ ठ कहिी हो बहन। यह सोचिी िो िमु आिी क्यों?'

प णाफ ने कुछ आशकंकि हो कर प छा - 'िमु अब िक कैसे जाग रही हो?'

प णाफ - 'िो क्यों सोिी हो सारे ठदन?'

समुमरा हाँसने लगी। एक क्षण में सहसा उसका मखु गभंीर हो गया। बोली - 'अपने मािा-त्तपिा की धन-मलप्सा का प्रायजश्चि कर रही ह ाँ, बहन और क्या।' यह कहि-ेकहि ेउसकी आाँखें सजल हो गई।

समुमरा ककसी अिंवेदना से त्तवकल हो कर बोली - 'िमु देख लेना बहन, एक ठदन यह महल ढह जाएगा। यही अमभशाप मेरे मुाँह से बार-बार तनकलिा है।' प णाफ ने त्तवजस्मि हो कर कहा - 'ऐसा क्यों कहिी हो बहन? कफर उसे एक बाि याद हो गई। प छा - 'क्या अभी भयैाजी नहीं आए?'

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प णाफ ने एक लबंी सााँस खींच कर कहा - 'मेरे भाग्य से अपने भाग्य की िलुना न करो, बहन पराश्रय से बड़ी त्तवपत्ति दभुाफग्य के कोश में नहीं है।'

समुमरा चली गई। प णाफ ने बिी बझुा दी और लेटी, पर नींद कहााँ? आज ही उसन ेइस घर में कदम रखा था और आज ही उसे अपनी जल्दबाजी पर खेद हो रहा था। यह तनश्चय था कक वह बहुि ठदन यहााँ न रह सकेगी।

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अध्याय 6 लाला बदरीप्रसाद के मलए अमिृराय से अब कोई ससंगफ रखना असभंव था, त्तववाह िो द सरी बाि थी। समाज में इिने घोर अनाचार का पक्ष ले कर अमिृराय ने अपने को उनकी नजरों से चगरा ठदया। उनसे अब कोई सबंधं करना बदरीप्रसाद के मलए कलकं की बाि थी। अमिृराय के बाद दाननाथ से उिम वर उन्हें कोई और न ठदखाई ठदया। अचधक खोज-प छ करने का अब समय भी न था। अमिृराय के इंिजार में पहले ही बहुि बबलबं हो चुका था, बबरादरी में लोग उाँगमलयााँ उठाने लगे थे। नए सबंधं की खोज में त्तववाह के एक अतनजश्चि समय िक टल जाने का भय था। इसमलए मन इधर-उधर न दौड़ा कर उन्होंने दाननाथ ही से बाि पक्की करने का तनश्चय कर मलया। देवकी ने भी कोई आपत्ति न की। प्रेमा ने इस त्तवषय में उदासीनिा प्रकट की। अब उसके मलए सभी परुुष समान थे, वह ककसी के साथ जीवन का तनवाफह कर सकिी थी। उसकी चलिी िो वह अत्तववाठहिा ही रहना पसदं करिी, पर जवान लड़की बठैी रहे, यह कुल के मलए घोर अपमान की बाि थी। इस त्तवषय में ककसी प्रकार का दरुाग्रह करके वह मािा-त्तपिा का ठदल न दखुाना चाहिी थी। जजस ठदन अमिृराय ने वह भीषण प्रतिज्ञा की, उसी ठदन पे्रमा ने समझ मलया कक अब जीवन में मेरे मलए सखु लोप हो गया, पर अत्तववाठहिा रह कर अपनी हाँसी कराने की अपेक्षा ककसी की हो कर रहना कहीं सलुभ था। आज दो-िीन साल पहले दाननाथ ही से उसके त्तववाह की बािचीि हो रही थी, यह वह जानिी ही थी बीच में पररजस्थति न बदल गई होिी, िो आज वह दाननाथ के घर होिी। दाननाथ को वह कई बार देख चुकी थी। वह रमसक हैं, सज्जन हैं, त्तवद्वान हैं, यह उसे माल म था। उनकी सच्चरररिा पर भी ककसी को सदेंह न था, देखने में भी बहुि ही सजीले-गठीले आदमी थे। ब्रह्मचयफ की कांति मखु पर झलकिी थी। उससे उन्हें पे्रम था, यह भी उससे तछपा न था। आाँखें हृदय के भेद खोल ही देिी हैं। अमिृराय ने हाँसी-हाँसी में पे्रमा से इसकी चचाफ भी कर दी थी। यह सब होि ेहुए पे्रमा को इनका जो कुछ खयाल था, वह इिना ही था कक वह अमिृराय के गहरे दोस्ि हैं। उनमें बड़ी घतनष्ठिा है। वह धनी नहीं थे, पर यह कोई ऐब न था, क्योंकक प्रेमा त्तवलामसनी न थी। क्यों उसका मन अमिृराय की ओर बढ़िा था और दाननाथ की ओर से खखचंिा था, इसका कोई कारण वह स्पष्ट नहीं कर सकिी थी, पर इस पररजस्थति में उसके मलए और कोई उपाय नहीं था। कफर भी अब िक उसने दाननाथ को कभी इस दृजष्ट से न देखा था। उसने मन में एक सकंल्प कर मलया था। अब हृदय में वह स्थान खाली हो जाने के बाद दाननाथ को वहााँ प्रतिजष्ठि करने में उसे क्षोभ नहीं हुआ। उसने मन को टटोल कर देखा, िो उसे ऐसा माल म हुआ कक वह दाननाथ से पे्रम भी कर सकिी है। बदरीप्रसाद त्तववाह के त्तवषय में उसकी अनमुति आवश्यक समझि ेथे। ककिनी ही बािों में वह बहुि ही उदार थे। पे्रमा की अनमुति पाि ेही उन्होंने दाननाथ के पास पगैाम भेज ठदया।

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अिं में बहुि सोचने-त्तवचारने के बाद उन्होंने यही जस्थर ककया कक एक बार अमिृराय को कफर टटोलना चाठहए। यठद अब भी उनका मि वह बदल सके, िो उन्हें आनदं ही होगा, इसमें कोई सदेंह न था। जीवन का सखु िो अमभलाषा में है। यह अमभलाषा प री हुई, िो कोई द सरी खड़ी होगी। जब एक-न-एक अमभलाषा का रहना तनजश्चि है, िो यही क्यों न रहे? इससे सुदंर, आनदंप्रद और कौन-सी अमभलाषा हो सकिी है? इसके मसवा यह भय भी था कक कहीं जीवन का यह अमभनय त्तवयोगािं न हो। प्रथम प्रेम ककिना अममट होिा है, यह वह ख ब जानि ेथे।

प्रकाश की एक स क्ष्म रेखा चचक में प्रवेश करिी हुई अमिृराय के मखु पर पड़ी। अमिृराय चौंक पड़।े वह मखु पीिवणफ हो रहा था। आठ-दस ठदन पहले जो कातंि थी, उसका कहीं नाम िक न था। घबरा कर कहा - 'यह िमु्हारी क्या दशा है? कहीं ल िो नहीं लग गई? कैसी िबीयि है?'

दाननाथ हाँस पड़,े पर अमिृराय को हाँसी नहीं आई। गभंीर स्वर में बोले - 'सारी दतुनया के मसद्धांि चाटे बठेै हो, अभी स्वास््य-रक्षा पर बोलना पड़ ेिो इस त्तवषय के पडंडिों को भी लजज्जि कर दोगे, पर इिना नहीं हो सकिा कक शाम को सरै ही कर मलया करो।'

इन उच्छंृखल शब्दों में त्तवनोद के साथ ककिनी आत्मीयिा, ककिना प्रगाढ़ स्नेह भरा हुआ था कक दोनों ही ममरों की आाँखें सजल हो गईं। दाननाथ िो मसु्करा पड़,े लेककन अमिृराय का मखु गभंीर हो गया। दाननाथ िो हाँसमखु थ,े पर त्तवनोद की शलैी ककसी ममांिक वेदना का पिा दे रही थी।

अमिृराय ने यह प्रसगं छेड़ कर दाननाथ पर बड़ा एहसान ककया, नहीं िो वह यहााँ घटंों गपशप करि ेरहने पर भी यह प्रश्न मखु पर न ला सकि।े अब भी उनके मखु के भाव से कुछ ऐसा जान पड़ा कक यह प्रसगं व्यथफ छेड़ा गया। बड़ ेसकंोच के साथ बोले - 'हााँ, सदेंशा िो आया है, पर मैंने जवाब दे ठदया।'

दाननाथ - 'जो मेरे जी में आया।'

'यही कक, मझुे स्वीकार नहीं है।'

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'नहीं, यह बाि नहीं मैं खुद उसके योग्य नहीं ह ाँ।'

दाननाथ ने बबजली का बटन दबाि ेहुए कहा - 'िमु इस काम को जजिना आसान समझि ेहो, उिना आसान नहीं है। कम-से-कम मेरे मलए।'

दाननाथ अब भी तनजश्चंि नहीं हुए थे। उनके मन में, एक नहीं सकैड़ों बाधाएाँ आ रही थीं। इस भय से कक यह नई शकंा सनु कर अमिृराय हाँस न पड़,े वह स्वय ंहाँस कर बोले - 'मझु जैसे लफंगे को पे्रमा स्वीकार करेगी, यह भी ध्यान में आया है जनाब के?'

दाननाथ चचिंा में ड ब गए। यद्यत्तप उनकी शकंाओं का प्रतिकार हो चुका था, पर अब भी उनके मन में ऐसी अनेक बािें थीं। जजन्हें वे प्रकट न कर सकि ेथे। उनका रप अलक्षक्षि, अव्यक्ि था। शकंा िकफ स ेकट जाने पर भी तनम फल नहीं होिी। ममर से बेवफाई का खयाल उनके ठदल में कुछ इस िरह तछप कर बठैा हुआ था कक उस पर कोई वार हो ही नहीं सकिा था।

दाननाथ खखड़की के सामने खड़ ेमसगरेट पी रहे थे। प छा - 'कैसा खि है?'

'िमु मेरी गरदन पर छुरी चला रहे हो।'

'िो गोली ही क्यों न मार दो कक हमेशा का झंझट ममट जाए।'

यह धमकी अपना काम कर गई। दाननाथ ने पर पर हस्िाक्षर कर ठदया और िब बबगड़ कर बोले - 'देख लेना मैं आज सखंखया खा लेिा ह ाँ कक नहीं। यह पर रखा ही रह जाएगा। 'सबेरे राम नाम सि होगी।'

िब अमिृराय ने हाँस कर कहा- 'सखंखया न हो, िो मैं दे द ाँगा। एक बार ककसी दवा में डालने के मलए माँगवाई थी।'

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अमिृराय अपनी हाँसी को न रोक सके।

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अध्याय 7 लाला बदरीप्रसाद को दाननाथ का पर क्या ममला आघाि के साथ ही अपमान भी ममला। वह अमिृराय की मलखावट पहचानि ेथे। उस पर की सारी नम्रिा, त्तवनय और प्रण, उस मलत्तप में लोप हो गए। मारे क्रोध के उनका मजस्िष्क खौल उठा। दाननाथ के हाथ क्या ट ट गए, जो उसने अमिृराय से यह पर मलखाया। क्या उसके पााँव में मेंहदी लगी थी, जो यहााँ िक न आ सकिा था? और यह अमिृराय भी ककिना तनलफज्ज है। वह ऐसा पर कैसे मलख सकिा है! जरा भी शमफ नहीं आई।

लाला दाननाथ जी, आपने अमिृराय से यह पर मलखा कर मेरा और पे्रमा का जजिना आदर ककया है, उसका आप अनमुान नहीं कर सकि।े उचचि िो यही था कक मैं उसे फाड़ कर फें क देिा और आपको कोई जवाब न देिा, लेककन...

बदरीप्रसाद ने कागज की ओर मसर झकुाए हुए कहा - 'अमिृराय का कोई खि नहीं आया।'

बदरीप्रसाद - 'हााँ, आदमी िो उन्हीं का था, पर खि दाननाथ का था। उसी का जवाब मलख रहा ह ाँ। महाशय ने अमिृराय से खि मलखाया है और नीचे अपने दस्िखि कर ठदए हैं। अपने हाथ से मलखि ेशमफ आिी थी, बेह दा, शोहदा...'

बदरीप्रसाद- 'यह पड़ा िो है, देख क्यों नहीं लेिी?'

बदरीप्रसाद - 'िो देखो। अभी िो शरु ककया है। ऐसी खबर ल ाँगा कक बच्चा सारा शोहदापन भ ल जाए।'

बदरीप्रसाद ने कड़क कर प छा - 'फाड़ क्यों ठदया। िमु कौन होिी हो मेरा खि फाड़नेवाली?'

बदरीप्रसाद - 'हााँ और क्या, लड़की िो िमु्हारी है, मेरी िो कोई होिी ही नहीं।'

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बदरीप्रसाद - 'दतुनया योग्य वरों से खाली नहीं, एक-से-एक पड़ ेहुए हैं।'

बदरीप्रसाद - 'उसने अपने हाथ से क्यों खि नहीं मलखा? मेरा िो यही कहना है। क्या उसे इिना भी माल म नहीं कक इसमें मेरा ककिना अनादर हुआ? सारी परीक्षाएाँ िो पास ककए बठैा है। डॉक्टर भी होने जा रहा है, क्या उसको इिना भी नहीं माल म? स्पष्ट बाि है दोनों ममल कर मेरा अपमान करना चाहि ेहैं।'

बदरीप्रसाद ने हाँस कर कहा - 'मैं िमु्हें िलाश करने गया था।'

बदरीप्रसाद ने झेंपि ेहुए कहा - 'इिना िो मैं भी समझिा ह ाँ, क्या ऐसा गाँवार ह ाँ?'

बदरीप्रसाद - 'मझु ेअब यह अफसोस हो रहा है कक पहले दान से क्यों न त्तववाह कर ठदया। इिने ठदनों िक व्यथफ में अमिृराय का मुाँह क्यों िाकिा रहा। आखखर वही करना पड़ा।'

बदरीप्रसाद - 'लेककन प्रेमा उसे स्वीकार करेगी, पहले यह िो तनश्चय कर लो। ऐसा न हो, मैं यहााँ हामी भर ल ाँ और पे्रमा इनकार कर ले। इस त्तवषय में उसकी अनमुति ले लेनी चाठहए।'

बदरीप्रसाद - 'अच्छा, िभी िमु बार-बार मकेै जाया करिी थी। अब समझा।'

बदरीप्रसाद - 'िमुने अपनी बाि कह डाली, िो मैं भी कहे डालिा ह ाँ, मेरा भी एक मसुलमान लड़की से पे्रम हो गया था। मसुलमान होने को ियैार था। रंगरप में अप्सरा थी, िमु उसके परैों की ध ल को भी नहीं पहुाँच सकिी। मझु ेअब िक उसकी याद सिाया करिी है।'

बदरीप्रसाद - 'जरा पे्रमा को बलुा लो, प छ लेना ही अच्छा है।'

बदरीप्रसाद - 'रो-रो कर प्राण िो न दे देगी।'

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बदरीप्रसाद - 'अच्छा, मैं ही एक बार उससे प छ ाँगा। इन पढ़ी-मलखी लड़ककयों का स्वभाव कुछ और हो जािा है। अगर उनके प्रमे और किफव्य में त्तवरोध हो गया, िो उनका समस्ि जीवन दुुःखमय हो जािा है। वे पे्रम और किफव्य पर उत्सगफ करना नहीं जानिी या नहीं चाहिी। हााँ, प्रेम और किफव्य में सयंोग हो जाए, िो उनका जीवन आदशफ हो जािा है। ऐसा ही स्वभाव पे्रमा का भी जान पड़िा है। मैं दान को मलखे देिा ह ाँ कक मझुे कोई आपत्ति नहीं है, लेककन पे्रमा से प छ कर ही तनश्चय कर सक ाँ गा।'

बदरीप्रसाद ने जरा माथा मसकोड़ कर प छा - 'कमाने का ढंग कैसा, मैं नहीं समझा?'

बदरीप्रसाद - 'पचास ही हजार बनाए, िो क्या बनाए, मैं िो समझिा ह ाँ, एक लाख से कम पर हाथ न मारेंगे।'

बदरीप्रसाद - 'जा कर कुछ ठदनों उनकी शाचगदी करो, इसके मसवा और कोई उपाय नहीं है।'

बदरीप्रसाद - 'जरा भी नहीं। िमु कभी झ ठ बोले ही नहीं, भला आज क्यों झ ठ बोलने लगे। सत्य के अविार िमु्हीं िो हो।'

कमलाप्रसाद - 'अच्छा, मैं ही झ ठा सही, इसमें झगड़ा काहे का, थोड़ ेठदनों में आपकी कलई खुल जाएगी। आप जैसे सरल जीव ससंार में न होि ेिो ऐसे ध िों की थैमलयााँ कौन भरिा?'

कमलाप्रसाद - 'यहााँ इन बािों से नहीं डरि।े लगी-मलपटी बािें करना भािा ही नहीं। कह ाँगा सत्य ही, चाहे ककसी को अच्छा लगे या बरुा। वह हमारा अपमान करि ेहैं, िो हम उनकी प जा न करेंगे। आखखर वह हमारे कौन होि ेहैं, जो हम उनकी करि िों पर परदा डालें? मैं िो उन्हें इिना बदनाम कराँ गा कक वह शहर में ककसी को मुाँह न ठदखा सकें गे।'

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बदरीप्रसाद ने त्तवजस्मि हो कर कहा - 'दाननाथ! वह भला क्यों अमिृराय पर आक्षेप करने लगा। उससे जैसे मरैी है, वसैी िो मैंने और कहीं देखी नहीं।'

बदरीप्रसाद - 'कमलाप्रसाद कहि ेथे?'

बदरीप्रसाद - 'कमलाप्रसाद झ ठ बोल रहा है, सरासर झ ठ! दान को मैं ख ब जानिा ह ाँ। उसका-सा सज्जन बहुि कम मैंने देखा है। मझुे िो त्तवश्वास है कक आज अमिृराय के ठहि के मलए प्राण देने का अवसर आ जाए, िो दान शौक से प्राण दे देगा। आदमी क्या हीरा है। मझुसे जब ममलिा है, बड़ी नम्रिा से चरण छ लेिा है।'

बदरीप्रसाद - 'अबकी डॉक्टर हो जाएगा।

पर का आशय क्या है, पे्रमा इसे िरंुि िाड़ गई। उसका हृदय जोर से धड़कने लगा। उसने कााँपि ेहुए हाथों से पर ले मलया पर कैसा रहस्य! मलखावट िो साफ अमिृराय की है। उसकी आाँखें भर आईं। मलखावट पर यह मलत्तप देख कर एक ठदन उसका हृदय ककिना फ ल उठिा था। पर आज! वही मलत्तप उसकी आाँखों में कााँटों की भााँति चुभने लगी। एक-एक अक्षर, बबच्छ की भााँति हृदय में डकं मारने लगा। उसने पर तनकाल कर देखा - वही मलत्तप थी, वही चचर-पररचचि सुदंर स्पष्ट मलत्तप, जो मानमसक शांति की द्योिक होिी है। पर का आशय वही था, जो प्रेमा ने समझा था। वह इसके मलए पहले ही से ियैार थी। उसको तनश्चय था कक दाननाथ इस अवसर पर न च कें गे। उसने इस पर का जवाब भी पहले ही से सोच रखा था, धन्यवाद के साथ साफ इनकार। पर यह पर अमिृराय की कलम से तनकलेगा, इसकी सभंावना ही उसकी कल्पना से बाहर थी। अमिृराय इिने हृदय-श न्य हैं, इसका उसे गमुान भी न हो सकिा था। वही हृदय जो अमिृराय के साथ त्तवपत्ति के कठोरिम आघाि और बाधाओं की दसु्सह यािनाएाँ सहन करने को ियैार था, इस अवहेलना की ठेस को न सह सका। वह अिलु पे्रम, वह असीम भजक्ि जो प्रेमा ने उसमें बरसों से सचंचि कर रखी थी, एक दीघफ शीिल त्तवश्वास के रप में तनकल गई। उसे ऐसा जान पड़ा मानो उसके सपं णफ अगं मशचथल हो गए हैं, मानो हृदय भी तनस्पदं हो गया है, मानो उसका अपनी वाणी पर लेशमार भी अचधकार नहीं है। उसके मखु, स ेये शब्द तनकल पड़ े- 'आपकी जो इच्छा हो वह कीजजए, मझुे सब स्वीकार है। वह कहने जा रही थी - जब कुएाँ में चगरना है, िो जैसे पक्का वसैे कच्चा, उसमें कोई भेद नहीं। पर जैसे ककसी ने उसे सचेि कर ठदया। वह िरंुि पर को वहीं फें क कर अपने कमरे में लौट आई और खखड़की के सामने खड़ी हो कर फ ट-फ ट कर रोने लगी।'

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सधं्या हो गई थी। आकाश में एक-एक करके िारे तनकलि ेआि ेथे। पे्रमा के हृदय में भी उसी प्रकार एक-एक करके स्मतृियााँ जागिृ होने लगीं। देखि-ेदेखि ेसारा गगन-मडंल िारों से जगमगा उठा। प्रेमा का हृदयाकाश भी स्मतृियों से आच्छन्न हो गया, पर इन असखं्य िारों से आकाश का अधंकार क्या और भी गहन नहीं हो गया था?

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अध्याय 8 वशैाख में पे्रमा का त्तववाह दाननाथ के साथ हो गया। शादी बड़ी ध म-धाम से हुई। सारे शहर के रईसों को तनमबंरि ककया। लाला बदरीप्रसाद ने दोनों हाथों से रुपए लटुाए। मगर दाननाथ की ओर से कोई ियैारी न थी। अमिृराय चदंा करने के मलए बबहार की ओर चले थे और िाकीद कर गए थ ेकक ध म-धाम मि करना। दाननाथ उनकी इच्छा की अवहेलना कैसे करि।े

प णाफ के आने से कमलाप्रसाद और समुमरा एक-द सरे से और पथृक हो गए। समुमरा के हृदय पर लदा हुआ बोझा उठ-सा गया। कहााँ िो वह ठदन-ब-ठदन त्तवरक्िावस्था में खाट पर पड़ी रहिी थी, कहााँ अब वह हरदम हाँसिी-बोलिी रहिी थी, कमलाप्रसाद की उसने परवाह ही करना छोड़ दी। वह कब घर में आिा है, कब जािा है, कब खािा है, कब सोिा है, उसकी उसे जरा भी कफक्र न रही। कमलाप्रसाद लपंट न था। सबकी यही धारणा थी कक उसमें चाहे और ककिने ही दगुुफण हों, पर यह ऐब न था। ककसी स्री पर िाक-झााँक करि ेउसे ककसी ने न देखा था। कफर प णाफ के रप ने उसे कैसे मोठहि कर मलया, यह रहस्य कौन समझ सकिा है। कदाचचि प णाफ की सरलिा, दीनिा और आश्रय-हीनिा ने उसकी कुप्रवतृ्ति को जगा ठदया। उसकी कृपणिा और कायरिा ही उसके सदाचार का आधार थी। त्तवलामसिा महाँगी वस्ि ुहै। जेब के रुपए खचफ करके भी ककसी आफि में फाँ स जाने की जहााँ प्रतिक्षण सभंावना हो, ऐसे काम में कमलाप्रसाद जैसा चिरु आदमी न पड़ सकिा था। प णाफ के त्तवषय में कोई भय न था। वह इिनी सरल थी कक उसे काब में लाने के मलए ककसी बड़ी साधना की जररि न थी और कफर यहााँ िो ककसी का भय नहीं, न फाँ सने का भय, न त्तपट जाने की शकंा। अपने घर ला कर उसने शकंाओ ंको तनरस्ि कर ठदया था। उसने समझा था, अब मागफ में कोई बाधा नहीं रही। केवल घरवालों की आाँख बचा लेना काफी था और यह कुछ कठठन न था, ककंि ुयहााँ भी एक बाधा खड़ी हो गई और वह समुमरा थी।

समुमरा ने कहा - 'अकेली पड़ी-पड़ी क्या कराँ ? कफर यह भी िो अच्छा नहीं लगिा कक मैं आराम से सोऊाँ और वह अकेली रोया करे। उठना भी चाहिी ह ाँ, िो चचमट जािी है, छोड़िी ही नहीं। मन में मेरी बेवक फी पर हाँसिी है या नहीं यह कौन जाने; मेरा साथ उसे अच्छा न लगिा हो, यह बाि नहीं।'

'मैं ऐसा नहीं समझिी।'

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'ऐसी समझ का न होना ही अच्छा है।'

कमलाप्रसाद के चररर में अब एक त्तवचचर पररविफन होिा जािा था। नौकरों पर डााँट-फटकार भी कम हो गई। कुछ उदार भी हो गया। एक ठदन बाजार से बगंाली ममठाई लाए और समुमरा को देि ेहुए कहा - 'जरा अपनी सखी को भी चखाना। समुमरा ने ममठाई ले ली; पर प णाफ से उसकी चचाफ िक न की।' द सरे ठदन कमलाप्रसाद ने प छा - 'प णाफ ने ममठाई पसदं की होगी?' समुमरा ने कहा - 'बबल्कुल नहीं, वह िो कहिी थी, मझु ेममठाई से कभी पे्रम न रहा।'

कमलाप्रसाद ने कहा - 'अरे! प णाफ भी यहीं है। क्षमा करना प णाफ, मझु ेमाल म न था। यह देखो समुमरा दो साडड़यााँ लाया ह ाँ। सस्ि ेदामों में ममल गईं। एक िमु ले लो, एक प णाफ को दे दो।'

प णाफ ने मसर ठहला कर कहा - 'नहीं, मैं रेशमी साड़ी ले कर क्या कराँ गी।'

समुमरा - 'छ ि की चीज नहीं; पर शौक की चीज िो है। सबसे पहले िो िमु्हारी प ज्य मािाजी ही छािी पीटने लगेंगी।'

समुमरा - 'बहुि अच्छी हैं, िो पे्रमा के पास भेज द ाँ। िमु्हारी बेसाही हुई साड़ी पा कर अपना भाग्य सराहेगी। माल म होिा है, आजकल कहीं कोई रकम मफु्ि हाथ आ गई है। सच कहना, ककसकी गदफन रेिी है। गााँठ के रपए खचफ करके िमु ऐसी कफज ल की चीजें कभी न लाए होगे।'

समुमरा - 'मााँगि ेिो वह यों ही दे देि,े तिजोरी िोड़ने की नौबि न आिी। मगर स्वभाव को क्या करो।'

प णाफ को समुमरा की कठोरिा बरुी माल म हो रही थी। एकांि में कमलाप्रसाद समुमरा को जलाि ेहों, पर इस समय िो समुमरा ही उन्हें जला रही थी। उसे भय हुआ कक कहीं कमलाप्रसाद मझुसे नाराज हो गए, िो मझु ेइस घर से तनकलना पड़गेा। कमलाप्रसाद को अप्रसन्न करके यहााँ एक ठदन भी तनबाह नहीं हो

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सकिा, यह वह जानिी थी। इसमलए वह समुमरा को समझािी रहिी थी। बोली - 'मैं िो बराबर समझाया करिी ह ाँ, बाब जी प छ लीजजए झ ठ कहिी ह ाँ?'

कमलाप्रसाद - 'िमु व्यथफ बाि बढ़ािी हो, समुमरा! मैं यह कब कहिा ह ाँ कक िमु इनके साथ उठना-बठैना छोड़ दो, मैंने िो ऐसी कोई बाि नहीं कही।'

कमलाप्रसाद - 'कुछ झ ठ कह रहा ह ाँ? प णाफ खुद देख रही हैं। िमु्हें उनके सत्सगं से कुछ मशक्षा ग्रहण करनी चाठहए थी। इन्हें यहााँ लाने का मेरा एक उद्येश्य यह भी था। मगर िमु्हारे ऊपर इनकी सोहब्बि का उल्टा ही असर हुआ। यह बेचारी समझािी होगीं, मगर िमु क्यों मानने लगीं। जब िमु मझुी को नहीं चगनिी,ं िो वह बेचारी ककस चगनिी की हैं। भगवान सब दुुःख दे, पर बरेु का सगं न दे। िमु इनमें से एक साड़ी रख लो प णाफ, द सरी मैं पे्रमा के पास भेजे देिा ह ाँ।'

कमलाप्रसाद - 'इनकी करि िें देखिी जाओ! इस पर मैं ही बरुा ह ाँ, मझुी में जमाने-भर के दोष हैं।'

कमलाप्रसाद - 'मैं िमु्हें िो नहीं देिा।'

कमलाप्रसाद - 'िमु उनकी ओर से बोलने वाली कौन होिी हो? िमुने अपना ठीका मलया है या जमाने भर का ठीका मलया है। बोलो प णाफ, एक रख द ाँ न? यह समझ लो कक िमुने इनकार कर ठदया, िो मझुे बड़ा दुुःख होगा।'

यह कह कर उसने कमलाप्रसाद की ओर त्तववश नेरों स ेदेखा। उनमें ककिनी दीनिा, ककिनी क्षमा-प्राथफना भरी हुई थी। मानो वे कह रही थीं - 'लेना िो चाहिी ह ाँ पर ल ाँ कैसे! इन्हें आप देख ही रहे हैं, क्या घर से तनकालने की इच्छा है?'

कमलाप्रसाद ने कोई उिर नहीं ठदया। साडड़यााँ चुपके से उठा लीं और परै पटकि ेहुए बाहर चले गए।

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अध्याय 9 साडड़यााँ लौटा कर और कमलाप्रसाद को अप्रसन्न करके भी प णाफ का मनोरथ प रा न हो सका। वह उस सदेंह को जरा भी न द र कर सकी, जो समुमरा के हृदय पर ककसी ठहसंक पश ुकी भााँति आरढ़ हो गया था। बेचारी दोनों िरफ स ेमारी गई। कमलाप्रसाद िो नाराज हो ही गया था, समुमरा ने भी मुाँह फुला मलया। प णाफ ने कई बार इधर-उधर की बािें करके उसका मन बहलाने की चेष्टा की; पर जब समुमरा की त्योररयााँ बदल गईं; और उसने खझड़क कर कह ठदया - इस वक्ि मझुसे कुछ न कहो प णाफ, मझुे कोई बाि नहीं सहुािी। मैं जन्म से ही अभाचगनी ह ाँ, नहीं िो इस घर में आिी ही क्यों? िमु आिी ही क्यों! िमु आईं, िो समझी थी और कुछ न होगा, िो रोना ही सनुा द ाँगी, पर बाि कुछ और ही हो गई। िमु्हारा कोई दोष नहीं है, यह िो सब मेरे भाग्य का दोष है। इस वक्ि जाओ, मझुे जरा एकांि में रो लेने दो - िब प णाफ को वहााँ से उठ जाने के मसवा और कुछ स झ न पड़ा। वह धीरे से उठ कर दबे पााँव अपने कमरे में चली गई। समुमरा एकांि में रोई हो, या न रोई हो; पर प णाफ अपने दभुाफग्य पर घटंों रोिी रही। अभी िक समुमरा को प्रसन्न करने की चेष्टा में वह इस दघुफटना की कुछ त्तववेचना कर न सकी थी। अब आाँखों में आाँसओुं की बड़ी-बड़ी ब ाँदें चगरािी हुई वह इन सारी बािों की मन-ही-मन आलोचना करने लगी। कमलाप्रसाद क्या वास्िव में एक साड़ी उसके मलए लाए थे? क्यों लाए थे? एक ठदन को छोड़ कर िो वह कफर कभी कमलाप्रसाद से बोली िक नहीं थी। उस ठदन भी वह स्वय ंकुछ न बोली थी। कमलाप्रसाद की ही बािें सनु रही थी। हााँ, उससे अगर भ ल हुई, िो यही कक वह वहााँ आने पर राजी हो गई; लेककन करिी क्या; और अवलबं ही क्या था? कोई आगे-पीछे नजर भी िो नहीं आिा था! आखखर जब इन्हीं लोगों का ठदया खािी थी,िो यहााँ आने में कौन-सी बाधा थी? जब से वह यहााँ आई, उसने कभी कमलाप्रसाद से बािचीि नहीं की। कफर कमलाप्रसाद ने उसके मलए रेशमी साड़ी क्यों ली? वह िो एक ही कृपण हैं, उदारिा उनमें कहााँ से आ गई? समुमरा ने भी िो साडड़यााँ न मााँगी थीं। अगर उसके मलए साड़ी लानी थी, िो मेरे मलए लाने की क्या जररि थी? मैं उसकी ननद नहीं, देवरानी नहीं, जेठानी नहीं, केवल आसरैि ह ाँ।

लेककन इस घर को त्याग देने का सकंल्प करके भी प णाफ तनकल न सकी? कहााँ जाएगी? जा ही कहााँ सकिी है? इिनी जल्दी चला जाना क्या इस लााँछन को और भी सदुृढ़ न कर देगा। त्तवधवा पर दोषारोपण करना ककिना आसान है। जनिा को उसके त्तवषय में नीची-से-नीची धारणा करि ेदेर नहीं लगिी, मानो कुवासना ही वधैव्य की स्वाभात्तवक वतृ्ति है, मानो त्तवधवा हो जाना मन की सारी दवुाफसनाओं, सारी दबुफलिाओं का उमड़ आना है। प णाफ केवल करवट बदल कर रह गई।

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बारह बजे के पहले िो कमलाप्रसाद कभी अदंर सोने न आि,े लेककन आज एक बज गया, दो बज गए, कफर भी उनकी आहट न ममली। यहााँ िक कक िीन बजे के बाद उसके कानों में द्वार बदं होने की आवाज सनुाई पड़ी। समुमरा ने अदंर से ककवाड़ बदं कर मलए थ।े कदाचचि अब उसे भी आशा न रही, पर प णाफ अभी िक प्रिीक्षा कर रही थी। यहााँ िक कक शषे राि भी इंिजार में कट गई। कमलाप्रसाद नहीं आए।

प णाफ सारे ठदन कमलाप्रसाद से दो-चार बािें करने का अवसर खोजिी रही, पर वह घर में आए ही नहीं और मदाफनी बठैक में वह स्वय ंसकंोच-वश न जा सकी। आज इच्छा न रहि ेहुए भी उसे भोजन करना पड़ा। उपवास करके लोगों को मनमानी आलोचनाएाँ करने का अवसर वह क्यों देिी?

प णाफ ने मसु्करा कर कहा - 'मैं चल ाँगी, यहााँ अकेली कैसे रह ाँगी?'

प णाफ ने बाि बनाई - 'बेचारे आ कर लौट गए होंगे।'

प णाफ - 'मना लेने में कोई बड़ी हातन िो न थी?'

प णाफ - 'िमु िो हाँसी उड़ािी हो। पति ककसी कारण रठ जाए, िो क्या उसे मनाना स्री का धमफ नहीं है?'

प णाफ - 'िमु्हीं अपने ठदल से सोचो।'

प णाफ ने जरा भौहें चढ़ा कर कहा - 'बहन, िमु कैसी बािें करिी हो? एक िो ब्राह्मणी, द सरे त्तवधवा, कफर नाि ेसे बहन, मझुे वह क्या कुदृजष्ट से देखेंगे? कफर उनका कभी ऐसा स्वभाव नहीं रहा।'

प णाफ - 'िो आज क्यों नहीं बीमार पड़ जािीं।'

प णाफ - 'बड़ी तनदफयी हो बहन, आज चली जाना, िमु्हें मेरी कसम।'

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दस-बारह ठदन बीि गए थे। एक ठदन आधी राि के बाद प णाफ को समुमरा के कमरे का द्वार खुलने की आहट ममली। उसने समझा, शायद कमलाप्रसाद आए हैं। अपने द्वार पर खड़ी हो कर झााँकने लगी। समुमरा अपने कमरे से दबे पााँव तनकल कर इधर-उधर सशकं नेरों से िाकिी, मदाफने कमरे की ओर चली जा रही थी। प णाफ समझ गई, आज रमणी का मान ट ट गया। बाि ठीक थी। समुमरा ने आज पति को मना लाने का सकंल्प कर मलया था। वह कमरे से तनकली, आाँगन को भी पार ककया, दालान से भी तनकल गई, पति-द्वार पर भी जा पहुाँची। वहााँ वह एक क्षण िक खड़ी सोच रही थी, कैसे पकुाराँ ? सहसा कमलाप्रसाद के खााँसने की आवाज सनु कर वह भागी, बेिहाशा भागी, और अपने कमरे में आ कर ही रकी। उसका प्रेम-पीडड़ि हृदय मान का खखलौना बना हुआ था। रमणी का मान अजेय है, अमर है, अनिं है।

ककंि ुप णाफ अभी िक द्वार पर खड़ी थी। समुमरा की त्तवयोग-व्यथा ककिनी दुुःसह हो रही थी, यह सोच कर उसका कोमल हृदय र्द्त्तवि हो गया। क्या इस अवसर पर उसका कुछ भी उिरदातयत्व न था? क्या इस भााँति िटस्थ रह कर िमाशा देखना ही उसका किफव्य था? इस सारी मानलीला का म ल कारण िो यही था, िब वह क्या शांिचचि से दो प्रमेमयों को त्तवयोगाजग्न में जलि ेदेख सकिी थी? कदात्तप नहीं। इसके पहले भी कई बार उसके जी में आया था कक कमलाप्रसाद को समझा-बझुा कर शांि कर दे, लेककन ककिनी ही शकंाएाँ उसका रास्िा रोक कर खड़ी हो गई थी। आज करणा ने उन शकंाओं का शमन कर ठदया। वह कमलाप्रसाद को मनाने चली। उसके मन में ककसी प्रकार का सदेंह न था। कमलाप्रसाद को वह शरु से ही अपना बड़ा भाई समझिी आ रही थी, भयैा कह कर पकुारिी भी थी। कफर उसे उनके कमरे में जाने की जररि ही क्या थी? वह कमरे के द्वार पर खड़ी हो कर उन्हें पकुारेगी, और कहेगी - भाभी को ज्वर हो आया है, आप जरा अदंर चल ेआइए। बस, यह खबर पाि ेही कमलाप्रसाद दौड़ ेअदंर चले जाएाँगे, इसमें उसे लेशमार भी सदेंह नहीं था। िीन साल के ववैाठहक जीवन का अनभुव होने पर भी परुुष-ससंार से अनमभज्ञ थी। अपने मामा के छोटे-से गााँव में उसका बाल-जीवन बीिा था। वहााँ सारा गााँव उसे बहन या बेटी कहिा था। उस कुजत्सि वासनाओं से रठहि ससंार में वह स्वछंद रप से खेि, खमलहान में त्तवचरा करिी थी। त्तववाह भी ऐसे परुुष से हुआ, जो जवान हो कर भी बालक था, जो इिना लज्जाशील था कक यठद महुल्ले की कोई स्री घर आ जािी, िो अदंर कदम न रखिा। वह अपने कमरे से तनकली और मदाफने कमरे के द्वार पर जा कर धीरे से ककवाड़ पर थपकी दी। भय िो उसे यह था कक कमलाप्रसाद की नींद मजुश्कल से ट टेगी, लकेकन वहााँ नींद कहााँ? आहट पाि ेही कमलाप्रसाद ने द्वार खोल ठदया और प णाफ को देखकर कौि हल से बोला - 'क्या है प णाफ, आओ बठैो।'

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कमलाप्रसाद ने त्तवजस्मि हो कर कहा - 'मनाने आई थीं, समुमरा? झ ठी बाि। मझु ेकोई मनाने नहीं आया था। मनाने ही क्यों लगी। जजससे पे्रम होिा है, उसे मनाया जािा है। मैं िो मर भी जाऊाँ , िो ककसी को रंज न हो। हााँ, मााँ-बाप रो लेंगे। समुमरा मझुे क्यों मनाने लगी। क्या िमुसे कहिी थी?'

कमलाप्रसाद ने मानो यह बाि नहीं सनुी। समीप आ कर बोले - 'यहााँ कब िक खड़ी रहोगी। अदंर आओ, िमुसे कुछ कहना है।'

कमलाप्रसाद उसकी घबराहट देख कर पलगं पर जा बठैा और आश्वासन देिा हुआ बोला - 'डरो मि प णाफ, आराम से बठैो मैं भी आदमी ह ाँ, कोई काट नहीं ह ाँ। आखखर मझुसे क्यों इिनी भागी-भागी कफरिी हो? मझुसे दो बाि करना भी िमु्हें नहीं भािा। िमुने उस ठदन साड़ी लौटा दी, जानिी हो मझुे ककिना दुुःख हुआ?'

'कमलाप्रसाद ने यह बाि न सनुी। उसकी आिरु दृजष्ट प णाफ के रक्िहीन मखुमडंल पर जमी हुई थी। उसके हृदय में कामवासना की प्रचंड ज्वाला दहक उठी। उसकी सारी चेष्टा, सारी चेिनिा, सारी प्रवतृ्ति एक त्तवचचर ठहसंा के भाव से आंदोमलि हो उठी। ठहसंक पशओु ंकी आाँखों में मशकार करि ेसमय जो स्फ ति फ झलक उठिी है, कुछ वसैी ही स्फ ति फ कमलाप्रसाद की आाँखों में झलक उठी। वह पलगं से उठा और दोनों हाथ खोले हुए प णाफ की ओर बढ़ा। अब िक प णाफ भय से कााँप रही थी। कमलाप्रसाद को अपनी ओर आि ेदेख कर उसने गदफन उठा कर आग्नेय नेरों से उसकी ओर देखा। उसकी दृजष्ट में भीषण सकंट िथा भय था, मानो वह कह रही थी - खबरदार। इधर एक जौ-भर भी बढे़, िो हम दोनों में से एक का अिं हो जाएगा। इस समय प णाफ को अपने हृदय में एक असीम शजक्ि का अनभुव हो रहा था, जो सारे ससंार की सेनाओं को अपने परैों-िले कुचल सकिी थी। उसकी आाँखों की वह प्रदीप्ि ज्वाला, उसकी वह बाँधी हुई मटु्ठठयााँ और िनी हुई गदफन देख कर कमलाप्रसाद ठठठक गया, होश आ गए, एक कदम भी आगे बढ़न ेकी उसे ठहम्मि न पड़ी। खड़-ेखड़ ेबोला - 'यह रप मि धारण करो, प णाफ। मैं जानिा ह ाँ कक प्रेम-जैसी वस्ि ुछल-बल स ेनहीं ममल सकिी, न मैं इस इरादे से िमु्हारे तनकट आ रहा था। मैं िो केवल िमु्हारी कृपा-दृजष्ट का अमभलाषी ह ाँ। जजस ठदन से िमु्हारी मधुर छत्तव देखी है, उसी ठदन से िमु्हारी उपासना कर रहा ह ाँ। पाषाण प्रतिमाओं की उपासना पर-पषु्प से होिी है, ककंि ुिमु्हारी उपासना मैं आाँसओु ंसे करिा ह ाँ। मैं झ ठ नहीं कहिा प णाफ। अगर इस समय िमु्हारा सकेंि पा जाऊाँ , िो अपने प्राणों को भी िमु्हारे चरणों पर अपफण कर द ाँ। यही मेरी परम अमभलाषा है। मैं बहुि चाहिा ह ाँ कक िमु्हें भ ल जाऊाँ , लेककन मन ककसी िरह नहीं मानिा। अवश्य ही प वफ जन्म में िमुसे मेरा कोई घतनष्ठ सबंधं रहा होगा, कदाचचि उस जन्म में भी मेरी यह लालसा अिपृ्ि ही रही होगी। िमु्हारे चरणों पर चगर कर एक बार रो

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लेने की इच्छा से ही मैं िमु्हें लाया। बस, यह समझ लो कक मेरा जीवन िमु्हारी दया पर तनभफर है। अगर िमु्हारी आाँखें मेरी िरफ से यों ही कफरी रहीं, िो देख लेना, एक ठदन कमलाप्रसाद की लाश या िो इसी कमरे में िपड़िी हुई पाओगी, या गगंा-िट पर, मेरा यह तनश्चय है।

कमलाप्रसाद चारपाई पर बठैिा हुआ बोला - 'नहीं प णाफ, मझुे िो इसमें लज्जा की कोई बाि नहीं दीखिी। अपनी इष्ट-देवी की उपासना करना क्या लज्जा की बाि है? प्रेम ईश्वरीय प्रेरणा है, ईश्वरीय सदेंश है। पे्रम के ससंार में आदमी की बनाई सामाजजक व्यवस्थाओं का कोई म ल्य नहीं। त्तववाह समाज के सगंठन की केवल आयोजना है। जाि-पाि केवल मभन्न-मभन्न काम करने वाले प्राखणयों का सम ह है। काल के कुचक्र ने िमु्हें एक ऐसी अवस्था में डाल ठदया है, जजसमें प्रेम-सखु की कल्पना करना ही पाप समझा जािा है, लेककन सोचो िो समाज का यह ककिना बड़ा अन्याय है। क्या ईश्वर ने िमु्हें इसीमलए बनाया है कक दो-िीन साल पे्रम का सखु भोगने के बाद आजीवन वधैव्य की कठोर यािना सहिी रहो। कभी नहीं, ईश्वर इिना अन्यायी, इिना क्र र नहीं हो सकिा। वसिं कुमार जी मेरे परम ममर थे। आज भी उनकी याद आिी है, िो आाँखों में आाँस भर जाि ेहैं। इस समय भी मैं उन्हें अपने सामने खड़ा रखिा ह ाँ िमुसे उन्हें बहुि पे्रम था। िमु्हारे मसर में जरा भी पीड़ा होिी थी, िो बेचारे त्तवकल हो जाि ेथे। वह िमु्हें सखु में मढ़ देना चाहि ेथे, चाहि ेथे कक िमु्हें हवा का झोंका भी न लगे। उन्होंने अपना जीवन ही िमु्हारे मलए अपफण कर ठदया था। रोओ मि प णाफ, िमु्हें जरा उदास देख कर उनका कलेजा फट जािा था, िमु्हें रोि ेदेख कर उनकी आत्मा को ककिना दुुःख होगा, कफर यह आज कोई नई बाि नहीं। इधर महीनों से िमु्हें रोने के मसवा द सरा काम नहीं है और तनदफयी समाज चाहिा है कक िमु जीवन पयिं यों ही रोिी रहो, िमु्हारे मखु पर हास्य की एक रेखा भी न ठदखाई दे, नहीं िो अनथफ हो जाएगा। िमु दषु्टा हो जाओगी। उस आत्मा को िमु्हारी यह व्यथफ की साधना देख कर ककिना दुुःख होिा होगा, इसकी कल्पना िमु कर सकिी हो? ईश्वर िमु्हें दुुःख के इस अपार सागर में ड बने नहीं देना चाहि।े वह िमु्हें उबारना चाहि ेहैं, िमु्हें जीवन के आनदं में मग्न कर देना चाहि ेहैं। यठद उनकी पे्ररणा न होिी, िो मझु जैसे दबुफल मनषु्य के हृदय में पे्रम का उदय क्यों होिा? जजसने ककसी स्री की ओर कभी आाँख उठा कर नहीं देखा, वह आज िमुसे पे्रम की मभक्षा क्यों मााँगिा होिा? मझुे िो यह दैव की स्पष्ट पे्ररणा माल म हो रही है।'

कमलाप्रसाद उसे फशफ पर बठैि ेदेख कर उठा और उसका हाथ पकड़ कर कुसी पर बबठाने की चषे्टा करि ेहुए बोला - 'नहीं-नहीं प णाफ, यह नहीं, हो सकिा। कफर मैं भी जमीन पर बठै ाँगा। आखखर इस कुसी पर बठैने में िमु्हें क्या आपत्ति है?'

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कमलाप्रसाद का चेहरा खखल उठा, बोला - 'अगर कोई कुछ कहे, िो उसकी म खफिा है। समुमरा को यहााँ बठेै देख कर कोई कुछ न कहेगा, िमु्हें बठेै देख कर उसके हाथ आप ही छािी पर पहुाँच जाएाँगे। यह आदमी के रचे हुए स्वााँग हैं और मैं इन्हें कुछ नहीं समझिा। जहााँ देखो ढकोसला, जहााँ देखो पाखंड। हमारा सारा जीवन पाखंडमय हो गया है। मैं इस पाखंड का अिं कर द ाँगा। प णाफ, मैं िमुसे सच कहिा ह ाँ, मैंने आज िक ककसी स्री की ओर आाँख नहीं उठाई। मेरी तनगाह में कोई जाँचिी ही न थी, लेककन िमु्हें देखि ेही मेरे हृदय में एक त्तवचचर आंदोलन होने लगा। मैं उसी वक्ि, समझ गया कक यह ईश्वर की पे्ररणा है। यठद ईश्वर की इच्छा न होिी िो िमु इस घर में आिी ही क्यों? इस वक्ि िमु्हारा यहााँ आना भी ईश्वरीय प्रेरणा है, इसमें लेशमार भी सदेंह न समझना। एक-से-एक सुदंररयााँ मैंने देखीं, मगर इस चंर्द् में हृदय को खींचने वाली जो शजक्ि है, वह ककसी में नहीं पाई।'

कमलाप्रसाद को सहसा साडड़यों की याद आ गई। दोनों साडड़यााँ अभी िक उसने सदं क में रख छोड़ी थीं। उसने एक साड़ी तनकाल कर प णाफ के सामने रख दी और कहा - 'देखो, यह वही साड़ी है प णाफ, उस ठदन िमुने इसे अस्वीकार कर ठदया था, आज इसे मेरी खातिर से स्वीकार कर लो। एक क्षण के मलए इसे पहन लो। िमु्हारी यह सफेद साड़ी देख कर मेरे हृदय में चोट-सी लगिी है। मैं ईमान से कहिा ह ाँ, यह िमु्हारे वास्ि ेलाया था। समुमरा के मन में कोई सदेंह न हो, इसमलए एक और लानी पड़ी। नहीं, उठा कर रखो मि। केवल एक ही क्षण के मलए पहन लो। जरा मैं देखना चाहिा ह ाँ कक इस रंग की साड़ी िमु्हें ककिनी खखलिी है। न मानोगी िो जबफदस्िी पहना द ाँगा।'

कमलाप्रसाद - 'मैं हट जािा ह ाँ।'

कमलाप्रसाद ने परदे की आड़ से कहा - 'पहन चुकीं? अब बाहर तनकल ाँ?'

कमलाप्रसाद ने परदा उठा कर झााँका। प णाफ हाँस पड़ी। कमलाप्रसाद ने कफर परदा खींच मलया और उसकी आड़ से बोला - 'अबकी अगर िमुने न पहना प णाफ, िो मैं आ कर जबफदस्िी पहना द ाँगा।'

प णाफ - 'पहने हुए िो ह ाँ। अब कैसे पहन ाँ। कौन अच्छी लगिी है। मेरी देह पर आ कर साड़ी की ममट्टी भी खराब हो गई।'

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कमलाप्रसाद - 'दीपक की ज्योति माि हो गई। वाह रे ईश्वर! िमु ऐसी आलोकमय छत्तव की रचना कर सकि ेहो। िमु्हें धन्य है।'

कमलाप्रसाद - 'ईश्वर अब मेरा बेड़ा कैसे पार लगेगा।'

कमलाप्रसाद ने प छा - 'यहााँ क्यों रखिी हो?'

कमलाप्रसाद - 'ईश्वर दंड नहीं देंगे, प णाफ, यह उन्हीं की आज्ञा है। िमु उनकी चचिंा न करो। खड़ी क्यों हो। अभी िो बहुि राि है, क्या अभी से भाग जाने का इरादा है।'

कमलाप्रसाद ने जोर दे कर कहा - 'यह कभी नहीं हो सकिा प णाफ, जररि पड़ ेिो िमु्हारे मलए प्राण िक दे द ाँ। जब चाहे परीक्षा ले कर देखो।'

कमलाप्रसाद ने मुाँह लटका कर कहा - 'प णाफ, मैं िो मर जाऊाँ गा। सच कहिा ह ाँ, मैं जहर खा कर सो रह ाँगा, और हत्या िमु्हारे मसर जाएगी।'

यह अतंिम वाक्य प णाफ ने सनुा था या नहीं, हम नहीं कह सकि।े उसने द्वार खोला और आाँगन की ओर चली। कमलाप्रसाद द्वार पर खड़ा िाकिा रहा। प णाफ को रोकने का उसे साहस न हुआ। चचडड़या एक बार दाने पर आ कर कफर न जाने क्या आहट पा कर उड़ गई थी। इिनी ही देर में प णाफ के मनोभावों में ककिने रपांिर हुए, वह खड़ा यही सोचिा रहा। वह रोष, कफर वह हास-त्तवलास, और अिं में यह त्तवराग! यह रहस्य उसकी समझ में न आिा था। क्या वह चचडड़या कफर दाने पर चगरेगी? यही प्रश्न कमलाप्रसाद के मजस्िष्क में बार-बार उठने लगा।

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अध्याय 10 आदशफ ठहदं -बामलका की भााँति पे्रमा पति के घर आ कर पति की हो गई थी। अब अमिृराय उसके मलए केवल एक स्वप्न की भााँति थे, जो उसने कभी देखा था। वह गहृ-कायफ में बड़ी कुशल थी। सारा ठदन घर का कोई-न-कोई काम करिी रहिी। दाननाथ को सजावट का सामान खरीदने का शौक था, वह अपने घर को साफ-सथुरा सजा हुआ देखना भी चाहि ेथे। लेककन इसके मलए जजस सयंम और श्रम की जररि है, वह उनमें न था। कोई चीज ठठकाने से रखना उन्हें आिा ही न था। ऐनक स्नान के कमरे के िाक पर रख ठदया, िो उसकी याद उस वक्ि आिी जब कॉलेज में उसकी जररि पड़िी। खाने-पीने, सोने-जागने का कोई तनयम न था। कभी कोई अच्छी पसु्िक ममल गई, िो सारी राि जागि ेरहे। कभी सरेशाम से सो रहे, िो खाने-पीने की सधु न रही। आय-व्यय की व्यवस्था न थी। जब िक हाथ में रुपए रहि,े बेदरेग खचफ ककए जाि,े बबना जररि की चीजें आया करिीं। रुपए खचफ हो जाने पर, लकड़ी और िले में ककफायि करनी पड़िी थी। िब वह अपनी वदृ्ध मािा पर झुाँझलाि,े पर मािा का कोई दोष न था। उनका बस चलिा िो अब िक दाननाथ चार पसैे के आदमी हो गए होि।े वह पसैे का काम धेले में तनकलना चाहिी थी। कोई महरी, कोई कहार, उनके यहााँ ठटकने न पािा था। उन्हें अपने हाथों काम करने में शायद आनदं आिा था। वह गरीब मािा-त्तपिा की बटेी थी, दाननाथ के त्तपिा भी माम ली आदमी थे और कफर जजए भी बहुि कम। मािा ने अगर इिनी ककफायि से काम न मलया होिा िो दाननाथ ककसी दफ्िर के चपरासी होि।े ऐसी मठहला के मलए कृपणिा स्वाभात्तवक ही थी। वह दाननाथ को अब भी वही बालक समझिी थीं जो कभी उनकी गोद में खेला करिा था। उनके जीवन का वह सबसे आनदंप्रद समय होिा था जब दाननाथ के सामने थाल रख कर वह खखलाने बठैिी थी। ककसी महाराज या रसोइए, कहार या महरी को वह इस आनदं में बाधा न डालने देना चाहिी थीं, कफर वह जजएाँगी कैस?े जब िक दाननाथ को अपने सामने बठै कर खखला न लें, उन्हें सिंोष न होिा था। दाननाथ भी मािा पर जान देि ेथे, चाहि ेथे कक यह अच्छे से अच्छा खाएाँ, पहनें और आराम से रहें मगर उनके पास बठै कर बालकों की िोिली भाषा से बािें करने का उन्हें न अवकाश था न रचच। दोस्िों के साथ गप-शप करने में उन्हें अचधक आनदं ममलिा था। वदृ्धा ने कभी मन की बाि कही नहीं, पर उसकी हाठदफक इच्छा थी कक दाननाथ अपना प रा वेिन लाकर उसके हाथ में रख दें, कफर वह अपने ढंग पर खचफ करिी। िीन सौ रुपए थोड़ ेनहीं होि,े न जाने कैसे खचफ कर डालिा है। इिने रपयों की गड्डी को हाथों से स्पशफ करने का आनदं उसे कभी न ममला था। दाननाथ में या िो इिनी स झ नहीं थी, या िो लापरवाह थे। पे्रमा ने दो ही चार महीने में घर को सवु्यवजस्थि कर ठदया। अब हरेक काम का समय और तनयम था, हरेक चीज का त्तवशषे स्थान था, आमदनी और खचफ का ठहसाब था। दाननाथ को अब दस बज ेसोना और पााँच बजे उठना पड़िा था, नौकर-चाकर खुश थे और सबसे ज्यादा खुश थी पे्रमा की सास। दाननाथ को जेब खचफ के मलए पच्चीस रुपए दे कर पे्रमा बाकी रुपए सास के हाथ में रख देिी थी और जजस चीज की जररि होिी, उन्हीं से कहिी। इस भााँति वदृ्धा को गहृ-स्वाममनी का अनभुव होिा था। यद्यत्तप शरु महीने से वह

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कहने लगिी थीं अब रुपए नहीं रहे, खचफ हो गए, क्या मैं रपया हो जाऊाँ , लेककन प्रेमा के पास िो पाई-पाई का ठहसाब रहिा था, चचरौरी-त्तवनिी करके अपना काम तनकाल मलया करिी थी।

उस पर भी दाननाथ के मन में वह शकंा बनी हुई थी। वह एक बार उसके अिंस्िल में बठै कर देखना चाहि ेथे - एक बार उसके मनोभावों की थाह लेना चाहि ेथे, लेककन यह भी चाहि ेथे कक वह यह न समझे कक उसकी परीक्षा हो रही है। कहीं उसने भााँप मलया िो अनथफ हो जाएगा, उसका कोमल हृदय उस परीक्षा का भार सह भी सकेगा या नहीं।

आखखर उन्होंने एक ठदन कह ही डाला - 'आजकल, आईने में अपनी स रि देखि ेहो?'

अमिृराय - 'कोई अिंर है?'

अमिृराय - 'झ ठ न बोलो यार, मझुे िो याद ही नहीं आिा कक िमु इिने ियैार कभी थे। सच कहिा ह ाँ, मैं िमु्हें बधाई देने जा रहा था। मगर डरिा था कक िमु समझोगे यह नजर लगा रहा है।'

अमिृराय अपनी हाँसी न रोक सके। दाननाथ को उन्होंने इिना मदं-बदु्चध कभी न समझा था। दाननाथ ने समझा - यह मेरी हाँसी उड़ाना चाहि ेहैं। मैं मोटा ह ाँ, या दबुला ह ाँ, इनसे मिलब? यह कौन होि ेहैं प छनेवाले? आप शायद यह मसद्ध करना चाहि ेहैं कक पे्रमा की स्नेहमय सेवा ने मझुे मोटा कर ठदया। यही सही, िो आपको क्यों जलन होिी है, क्या अब भी आपका उससे कुछ नािा है। मलेै बिफन में साफ पानी भी मलैा हो जािा है। द्वेष से भरा हृदय पत्तवर आमोद भी नहीं सह सकिा। यह वही दाननाथ है, जो द सरों को चटुककयों में उड़ाया करि ेथे, अच्छे-अच्छों का काकफया िगं कर देि ेथे। आज सारी बदु्चध घास खाने चली गई थी। वह समझ रहे थे कक यह महाशय मझुे भलुावा दे कर पे्रमा की टोह लेना चाहि ेहैं। मझुी से उड़ने चले हैं। अभी कुछ ठदन पढ़ो िब मेरे मुाँह आना। बोले - 'िमु हाँसे क्यों? क्या मैंने हाँसी की बाि कही है?'

दाननाथ - 'आपकी आाँखों को धोखा हुआ है।'

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दाननाथ - 'पहाड़ पर जाने में रुपए लगि ेहैं, यहााँ कौड़ी कफन को भी नहीं है।'

दाननाथ - 'िमु्हारे पास भी िो रुपए नहीं हैं, ईंट-पत्थर में उड़ा ठदए।'

दाननाथ - 'ख ब उन रपयों से आप पहाड़ों की हवा खाइएगा। अपने घर की जमा लटुा कर अब द सरों के सामने हाथ फैलाि ेकफरोगे?'

दाननाथ - 'जी, िो मझुे क्षमा कीजजए, आप ही पहाड़ों की सरै कीजजए। िमुने व्यथफ इिने रुपए नष्ट कर ठदए। सौ-पचास अनाथों को िमुने आश्रय दे ही ठदया, िो कौन बड़ा उपकार हुआ जािा है। हााँ, िमु्हारी लीडरी की अमभलाषा प री हो जाएगी।'

दाननाथ को 'उपकार' शब्द से घणृा थी। 'सेवा' को भी वह इिना ही घखृणि समझि ेथे। उन्हें सेवा और उपकार के परदे में केवल अहंकार और ख्याति-पे्रम तछपा हुआ माल म होिा था। अमिृराय ने कुछ उिर न ठदया। दाननाथ कोई उिर सनुने को ियैार भी न थे, उन्हें घर जाने की जल्दी थी, अिएव उन्होंने भी उठ कर हाथ बढ़ा ठदया। दाननाथ ने हाथ ममलाया और त्तवदा हो गए।

घर पहुाँच,े िो पे्रमा ने प छा - 'आज बड़ी देर लगाई, कहााँ चले गए थ?े देर करके आना हो िो भोजन करके जाया करो।'

पे्रमा ने इसका कुछ उिर न ठदया। हााँ में हााँ ममलाना न चाहिी थी, त्तवरोध करने का साहस न था। बोली - 'अच्छा चल कर भोजन िो कर लो, महाराजजन कल से भनुभनुा रही है कक यहााँ बड़ी देर हो जािी है। कोई उसके घर का िाला िोड़ दे, िो कहीं की न रहे।'

दाननाथ ठदल में अमिृराय को इिना नीच न समझि ेथे - कदात्तप नहीं। उन्होंने केवल प्रेमा को छेड़ने के मलए यह स्वााँग रचा था। पे्रमा बड़ ेअसमजंस में पड़ गई। अमिृराय की यह तनदंा उसके मलए असह्य थी। उनके प्रति अब भी उसके मन में श्रद्धा थी। दाननाथ के त्तवचार इिने कुजत्सि हैं, इसकी उसे कल्पना भी

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न थी। बड़-ेबड़ ेतिरस्कारप णफ नेरों से देखकर बोली - 'मैं समझिी ह ाँ कक िमु अमिृराय के साथ बड़ा अन्याय कर रहे हो। उनका हृदय त्तवशदु्ध है, इसमें मझुे जरा भी सदेंह नहीं। वह जो कुछ करना चाहि ेहैं, उससे समाज का उपकार होगा या नहीं, यह िो द सरी बाि है, लेककन उनके त्तवषय में ऐसे शब्द मुाँह से तनकाल कर िमु अपने हृदय का ओछापन ठदखा रहे हो।'

बोले - 'मझुे नहीं माल म था कक िमु अमिृराय को देविा समझ रही हो, हालााँकक देविा भी कफसलि ेदेखे गए हैं।'

दाननाथ - 'िो कफर लीडर कैसे बनि,े हम जैसों की शे्रणी में न आ जाि?े अपने त्याग का मसक्का जनिा पर कैसे बठैाि?े'

इिने में वदृ्ध मािा आ कर खड़ी हो गईं। दाननाथ ने प छा - 'क्या है, अम्मााँ जी?'

दाननाथ ने हाँस कर कहा - 'यही मझुसे लड़ रही है, अम्मााँ जी, मैं िो बोलिा भी नहीं।'

मािा - 'बह , जोर से िो िमु्हीं बोल रही हो। यह बेचारा िो बठैा हुआ है।'

दाननाथ - 'अम्मााँ जी में यही िो गणु है कक वह सच ही बोलिी हैं। िमु्हें शमाफना चाठहए।'

दाननाथ - 'िमुने भोजन क्यों न कर मलया? मैं िो ठदन में दस बार खािा ह ाँ। मेरा इंिजार क्यों करिी हो। आज बाब अमिृराय ने भी कह ठदया कक िमु इन ठदनों मोटे हो गए हो। एकाध ठदन न भी खाऊाँ िो चचिंा नहीं।'

दाननाथ - 'नहीं अम्मााँ जी, सचमचु कहि ेथे।'

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दाननाथ मोटे चाहे न हो गए हों, कुछ हरे अवश्य थे। चेहरे पर कुछ सखुी थी। देह भी कुछ चचकनी हो गई थी। मगर यह कहने की बाि थी। मािाओं को िो अपने लड़के सदैव ही दबुले माल म होि ेहैं, लेककन दाननाथ भी इस त्तवषय में कुछ वहमी जीव थे। उन्हें हमेशा ककसी-न-ककसी बीमारी की मशकायि बनी रहिी थी। कभी खाना नहीं हजम हुआ, खट्टी डकारें आ रही हैं, कभी मसर में चक्कर आ रहा है, कभी परै का िलवा जल रहा है। इस िरह ये मशकायिें बढ़ गई थीं। कहीं बाहर जाि,े िो उन्हें कोई मशकायि न होिी, क्योंकक कोई सनुने वाला न होिा। पहले अकेले मााँ को सनुाि ेथे। अब एक और सनुने वाला ममल गया था। इस दशा में यठद कोई उन्हें मोटा कहे, िो यह उसका अन्याय था। प्रेमा को भी उनकी खातिर करनी पड़िी थी। इस वक्ि दाननाथ को खुश करने का उसे अच्छा अवसर ममल गया। बोली - 'उनकी आाँखों में शनीचर है। दीदी बेचारी जरा मोटी थीं। रोज उन्हें िाना ठदया करिे, घी मि खाओ, द ध मि पीयो। परहेज करा-करा के बेचारी को मार डाला। मैं वहााँ होिी िो लाला जी की खबर लेिी।'

दाननाथ - 'अच्छी नहीं, पत्थर है। बलगम भरा हुआ है। महीने भर कसरि छोड़ दें, िो उठना-बठैना द भर हो जाए।'

दाननाथ - 'मेरे साथ खेलि ेथे, िो रुला-रुला मारिा था।'

लेककन दाननाथ जहााँ त्तवरोधी स्वभाव के मनषु्य थे, वहााँ कुछ दरुाग्रही भी थे। जजस मनषु्य के पीछे उनका अपनी ही पत्नी के हाथों इिना घोर अपमान हुआ, उसे वह सस्ि ेनहीं छोड़ सकि।े सारा ससंार अमिृराय का यश गािा, उन्हें कोई परवाह न थी, नहीं िो वह भी उस स्वर में अपना स्वर ममला सकि ेथे, वह भी करिल-ध्वतन कर सकि ेथे, पर उनकी पत्नी अमिृराय के प्रति इिनी श्रद्धा रखे और केवल हृदय में न रख कर उसकी दहुाई देिी कफरे, जरा भी चचिंा न करे कक इसका पति पर क्या प्रभाव होगा, यह जस्थति दसु्सह थी। अमिृराय अगर बोल सकि ेहैं, िो दाननाथ भी बोलने का अभ्यास करेंगे और अमिृराय का गवफ मदफन कर देंगे, उसके साथ ही पे्रमा का भी। वह पे्रमा को ठदखा देंगे कक जजन गणुों के मलए ि अमिृराय को प ज्य समझिी है, वे गणु मझुमें भी हैं, और अचधक मारा में।

पे्रमा ने प छा - 'क्या आज िमु्हारा व्याख्यान है? िमु िो पहले कभी नहीं बोले।'

प्रेमा - 'मझुे िो िमुने सनुाई ही नहीं। मैं भी जाऊाँ गी। देख ाँ िमु कैसा बोलि ेहो?'

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प्रेमा- 'लाला जी ने िमु्हें आखखर अपनी ओर घसीट ही मलया?'

प्रेमा ने दबी जबान स ेकहा - 'अब िक वह िमु्हें अपना सहायक समझि ेथे। यह नोठटस पढ़ कर चककि हो गए होंगे।'

दाननाथ - 'नहीं, अभी मेरे सामने कर दो। िमु्हें गाि-ेबजाि ेमठंदर िक जाना पड़गेा।'

राि के आठ बज रहे थे। दाननाथ पे्रमा के साथ बठेै द न की उड़ा रहे थ े- 'सच कहिा ह ाँ, त्तप्रये। दस हजार आदमी थे, मगर क्या मजाल कक ककसी के खााँसने की आवाज भी आिी हो। सब-के-सब बिु बने बठेै थे। िमु कहोगी, यह जीट उड़ा रहा है पर मैंने लोगों को कभी इिना िल्लीन नहीं देखा।'

द ाँ।'

त्तववाह के बाद आज अमिृराय पहली बार दाननाथ के घर आए थे। पे्रमा िो ऐसी घबरा गई, मानो द्वार पर बाराि आ गई हो। मुाँह से आवाज ही न तनकलिी थी। भय होिा था, कहीं अमिृराय उसकी आवाज न सनु लें। इशारे से महरी को बलुाया और पानदान माँगवा कर पान बनाने लगी।

अमिृराय ने उन्हें गले लगाि ेहुए कहा - 'आज िो यार िमुने कमाल कर ठदखाया मैंने अपनी जजदंगी में कभी ऐसी स्पीच न सनुी थी।'

अमिृराय - 'ठदल्लगी नहीं थी भाई, जाद था। िमुने िो आग लगा दी। अब भला हम जैसों की कौन सनेुगा। मगर सच बिाना यार, िमु्हें यह त्तवभ ति कैसे हाथ आ गई? मैं िो दााँि पीस रहा था। मौका होिा वहीं िमु्हारी मरम्मि करिा।'

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अमिृराय- 'सबसे पीछे की िरफ, मैं मुाँह तछपाए खड़ा था। आओ, जरा िमु्हारी पीठ ठोंक द ाँ?'

अमिृराय - 'अब िमु मेरे हाथों त्तपटोगे। िमुने पहली ही स्पीच में अपनी धाक जमा दी, आग ेचल कर िो िमु्हारा जवाब ही न ममलेगा। मझुे दुुःख है िो यही कक हम और िमु अब दो प्रतिक ल मागफ पर चलि ेनजर आएाँगे। मगर यार यहााँ द सरा कोई नहीं है, क्या िमु ठदल से समझि ेहो कक सधुारों से ठहदं -समाज को हातन पहुाँचेगी?'

अमिृराय - 'िो कफर हमारी और िमु्हारी ख ब छनेगी, मगर एक बाि का ध्यान रखना, हमारे सामाजजक मसद्धांिों में चाहे ककिना ही भेद क्यों न हो, मचं पर चाहे एक-द सरे को नोच ही क्यों न खाएाँ मगर मरैी अक्षुण्ण रहनी चाठहए। हमारे तनज के सबंधं पर उनकी आाँच िक न आने पाए। मझुे अपने ऊपर िो त्तवश्वास है, लेककन िमु्हारे ऊपर मझुे त्तवश्वास नहीं है। क्षमा करना, मझुे भय है कक िमु...'

अमिृराय ने सठंदग्ध भाव से कहा - 'िमु कहि ेहो, मगर मझुे त्तवश्वास नहीं आिा।'

अमिृराय - 'और िो घर में सब कुशल है न? अम्मााँ जी से मेरा प्रणाम कह देना।'

अमिृराय - 'कई जगह जाना है। अनाथालय के मलए चंदे की अपील करनी है। जरा दस-पााँच आदममयों से ममल िो ल ाँ। भले आदमी, त्तवरोध ही करना था, िो अनाथालय बन जाने के बाद करि।े िमुने रास्ि ेमें कााँटे बबखेर ठदए।'

प्रेमा - 'वह भी सनुने गए थे?'

प्रेमा - 'यह िमु कैसे कह सकि ेहो? परुाने पडंडि चाहे सधुारों का त्तवरोध करें, लकेकन मशक्षक्षि-समाज िो नहीं कर सकिा।'

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प्रेमा - 'अच्छा, उन्हें एक कौड़ी भी न ममलेगी। झगड़ा काहे का? अब रुपए लाओ, कल प जा कर आऊाँ । भाभी और प णाफ दोनों को बलुाऊाँ गी। कुछ महुल्ले की हैं। दस-बीस ब्राह्मणों का भोजन भी आवश्यक ही होगा।'

प्रेमा - 'राम जाने, िमु नीयि के बड़ ेखोटे हो, भैंस से चींटी वाली मसल करोगे क्या? शाम को सवा सेर कहा था, अब सवा पाव पर आ गए। मैंने सवा मन की मानिा की है।'

कमलाप्रसाद ने घर में कदम रखा। पे्रमा ने जरा घ ाँघट आगे खींच मलया और मसर झुका कर खड़ी हो गई। कमलाप्रसाद ने पे्रमा की िरफ िाका भी नहीं, दाननाथ से बोले - 'भाई साहब, िमुने िो आज दशु्मनों की जबान बदं कर दी। सब-के-सब घबराए हुए हैं। आज मजा िो जब आए कक चंदे की अपील खाली जाए, कौड़ी न ममले।'

कमलाप्रसाद - 'कौन, अगर पााँच सौ से ज्यादा पा जाएाँ िो म ाँछ मुाँड़ा ल ाँ, काशी में मुाँह न ठदखाऊाँ । अभी एक हफ्िा बाकी है। घर-घर जाऊाँ गा। त्तपिा जी ने मकुाबले में कमर बााँध ली है। वह िो पहले ही सोच रहे थे कक इन त्तवधममफयों का रंग फीका करना चाठहए, लेककन कोई अच्छा बोलने वाला नजर न आिा था। अब आपके सहयोग से िो हम सारे शहर को ठहला सकि ेहैं। अभी एक हजार लठैि ियैार हैं, प रे एक हजार। जजस ठदन महाशय जी की अपील होगी चारों िरफ रास्ि ेबदं कर ठदए जाएाँगे। कोई जाने ही न पाएगा। बड़-ेबड़ों को िो हम ठीक कर लेंगे और ऐरे-गरैों के मलए लठैि काफी हैं। अचधकाशं पढे़-मलख ेआदमी ही िो उनके सहायक हैं। पढे़-मलखे आदमी लड़ाई-झगड़ ेके करीब नहीं जाि।े हााँ, कल एक स्पीच ियैार रखखएगा। इससे बढ़ कर हो। उधर उनका जलसा हो, इधर उसी वक्ि हमारा जलसा भी हो। कफर देखखए क्या गलु खखलिा है।'

कमलाप्रसाद हाककम-जजला का नाम सनु कर जरा मसटत्तपटा गए। कुछ सोच कर बोले - 'हुक्काम उनकी पीठ भले ही ठोंक दें, पर रुपए देनेवाले जीव नहीं हैं। पाएाँ िो उल्टे बाब साहब को 'म ाँड़' लें। हााँ, क्लेक्टर साहब का मामला बड़ा बेढब है। मगर कोई बाि नहीं। दादाजी से कहिा ह ाँ - आप शहर के दस-पााँच बड़-ेबड़ ेरईसों को ले कर साहब से मममलए और उन्हें समझाइए कक अगर आप इस त्तवषय में हस्िक्षेप करेंगे, िो शहर में बलवा हो जाएगा।'

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पे्रमा ये बािें सनु कर पहले ही से भरी बठैी थी। यह प्रश्न चचनगारी का काम कर गया, मगर कहिी क्या? ठदल में ऐठं कर रह गई। बोली - 'मैं इन झगड़ों में नहीं पड़िी। आप जानें और वह जानें। मैं दोनों िरफ का िमाशा देख ाँगी। कठहए, अम्मााँ जी िो कुशल से हैं। भाभीजी आजकल क्यों रठी हुई हैं? मेरे पास कई ठदन हुए एक खि भेजा था कक मैं बहुि जल्द मकेै चली जाऊाँ गी।'

कमलाप्रसाद चला गया। दाननाथ भी उनके साथ बाहर आए और दोनों बािें करि ेहुए बड़ी द र िक चले गए।

दाननाथ - 'इसी वक्ि! कम-से-कम एक बजे िक होगा। नहीं साहब, आप जाएाँ, मैं जािा ह ाँ।'

दाननाथ - 'नहीं भाई साहब, माफ कीजजए। बेचारी औरिें मेरी राह देखिी बठैी रहेंगी।

दाननाथ ने दो-चार बार मना ककया, मगर कमलाप्रसाद ने न छोड़ा। दोनों ने मनेैजर के घर भोजन ककया और मसनेमा-हाल में जा बठेै, मगर दाननाथ को जरा भी आनदं न आिा था। उनका ठदल घर की ओर लगा था। पे्रमा बठैी होगी - अपने ठदल में क्या कहिी होगी? घबरा रही होगी। बरुा फाँ सा। कमलाप्रसाद बीच-बीच में कहिा जािा था - यह देखो चैपमलन आया - वाह-वाह! क्या कहने हैं पट्ठे, िरेे दम का जम ड़ा है - अरे यार, ककधर देख रहे हो, जरा इस औरि को देखो, सच कहिा ह ाँ, यह मझुे पानी भरने को नौकर रख ल,े िो रह जाऊाँ -वाह! ऐसी-ऐसी पररयााँ भी दतुनया में हैं। एक हमारा देश ख सट है, िमु िो सो रहे हो जी।'

प्रेमा ने कहा - 'बड़ी जल्दी लौटे, अभी ग्यारह ही िो बजे हैं।'

प्रेमा ने तिनक कर कहा - 'झ ठ मि बोलो, भाई साहब पकड़ ले गए। उन्होंने कहा होगा, चलो जी जरा मसनेमा देख आएाँ, िमुने एक बार िो नहीं की होगी, कफर चुपके से चले गए होंगे। जानि ेिो थे ही, लौंडी बठैी रहेगी।'

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प्रेमा - 'जी, ऐसे ही बड़ ेशीलवान िो हैं आप, यह क्यों नहीं कहि ेकक वहााँ की बहार देखने को जी ललच उठा।'

प्रेमा - 'उन्हें िो भोजन करके सलुा ठदया। इस वक्ि जागिी होिीं, िो िमुसे डडंों से बािें करिीं। सारी शरारि भ ल जाि।े'

प्रेमा - 'मसखा रहे हो, िो वह भी सीख ल ाँगी। भयैा से मेल हुआ है, िो मेरी दशा भी भाभी की-सी हो कर रहेगी।'

प्रेमा - 'और िमु?'

प्रेमा - 'िो मैं भी कर चकुी।'

प्रेमा ने न माना। दाननाथ को खखला कर ही छोड़ा, िब खुद खाया। दाननाथ आज बहुि प्रसन्न थे। जजस आनदं की-जजस शकंा-रठहि आनदं की उन्होंने कल्पना की थी, उसका आज कुछ आभास हो रहा था। उनका ठदल कह रहा था - 'मैं व्यथफ ही इस पर शकंा करिा ह ाँ। पे्रमा मेरी है, अवश्य मेरी है। अमिृराय के त्तवरुद्ध आज मैंने इिनी बािें की और कफर भी कहीं िवेर नहीं मलैा हुआ। आज आठ महीनों के बाद दाननाथ को जीवन के सच्चे आनदं का अनभुव हुआ।'

दाननाथ - 'सोचिा ह ाँ, मझु-सा भाग्यवान ससंार में द सरा कौन होगा?'

दाननाथ - 'िमु देवी हो।'

छुः ठदन बीि गए। कमलाप्रसाद और उनके ममर-वृदं रोज आि ेऔर शहर की खबरें सनुा जाि।े ककन-ककन रईसों को िोड़ा गया, ककन-ककन अचधकाररयों को फााँसा गया, ककन-ककन महुल्लों पर धावा हुआ, ककस-ककस कचहरी, ककस-ककस दफ्िर पर चढ़ाई हुई, यह सारी ररपोटफ दाननाथ को सनुाई जािी। आज यह भी

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माल म हो गया कक साहब बहादरु ने अमिृराय को जमीन देने से इनकार कर ठदया है। ईंट-पत्थर अपने घर में भर रखे हैं बस कॉलजेों के थोड़-ेसे त्तवद्याथी रह गए हैं, सो उनका ककया क्या हो सकिा है? दाननाथ इन खबरों को प्रेमा से तछपाना चाहि ेथे, पर कमलाप्रसाद को कब चैन आिा था। वह चलि ेवक्ि सकं्षक्षप्ि ररपोटफ उसे भी सनुा देि।े

दाननाथ ने उदासीन भाव से कहा - 'मझुे ले जा कर क्या कीजजएगा। आप लोग िो हैं ही।'

दाननाथ - 'अभी मेरा व्याख्यान ियैार नहीं हुआ है। उधर गया, िो कफर अध रा ही रह जाएगा।'

यह कहि ेहुए कमलाप्रसाद अदंर चले गए। पे्रमा आज की ररपोटफ सनुने के मलए उत्कंठठि हो रही थी। बोली - 'आइए भयैाजी, आज िो समर का ठदन है।'

प्रेमा - 'मार-पीट न होगी?'

पे्रमा को बड़ी चचिंा हुई। जहााँ इिने त्तवरोधी जमा होंगे, वहााँ दंगा हो जाने की प्रबल सभंावना थी। कहीं ऐसा न हो कक म खफ जनिा उन पर ही ट ट पड़।े क्या उन्हें इन बािों की खबर नहीं है? सारे शहर में जजस बाि की चचाफ हो रही है, क्या वह उनके कानों िक न पहुाँची होगी? उनके भी िो कुछ-न-कुछ सहायक होंगे ही। कफर वह क्यों इस जलसे को स्थचगि नहीं कर देि?े क्यों अपनी जान के दशु्मन हुए हैं? आज इन लोगों को जलसा कर लेने दें। जब ये लोग जरा ठंड ेहो जाएाँ, िो दो-चार महीने बाद अपना जलसा करें, मगर वह िो हठी जीव हैं। आग में क दने का िो उन्हें जैसे मरज है। क्या मेरे समझाने से वह मान जाएाँगे? कहीं ऐसा िो न समझेंगे कक यह भी अपने पति का पक्ष ले रही है।

चार बजे। दाननाथ अपने जत्थे के साथ अपने जलस ेमें शरीक होने चले। प्रेमा को उस समय अपनी दशा पर रोना आया। ये दोनों ममर जजनमें दााँि-काटी रोटी थी, आज एक-द सरे के शर ुरहे हैं और मेरे कारण। अमिृराय से पहले मेरा पररचय न होिा िो आज ऐसी लाग-डााँट क्यों होिी? वह मानमसक व्यग्रिा की दशा में कभी खड़ी हो जािी, कभी बठै जािी। उसकी सारी करणा, सारी कोमलिा, सारी ममिा, उसे अमिृराय को जलसे में जाने से रोकने के मलए उनके घर जाने की पे्ररणा करने लगी। उसका स्री-सलुभ

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सकंोच एक क्षण के मलए लपु्ि हो गया। एक बार भय हुआ कक दाननाथ को बहुि बरुा लगेगा लेककन उसने इस त्तवचार को ठुकरा ठदया। िजेमय गवफ से उसका मखु उद्दीप्ि हो उठा - मैं ककसी की लौंडी नहीं ह ाँ, ककसी के हाथ अपनी धारणा नहीं बेची है, प्रेम पति के मलए है, पर भजक्ि सदा अमिृराय के साथ रहेगी।

मािा ने प छा - 'कहााँ जाएगी, बेटी?'

मािा - 'बड़ी अच्छी बाि है। बेटी मैं भी िमु्हारे साथ चल ाँगी। मेरी बाि वह न टालेगा। जब नन्हा-सा था, िभी से मेरे घर आिा-जािा था। न जाने ऐसी क्या बाि पदैा हो गई कक इन दोनों में ऐसी अनबन हो गई। बह , मैंने दो भाइयों में भी ऐसा पे्रम नहीं देखा।'

मािा - 'दान बेचारा भोला है। उनकी बािों में आ गया।'

मगर िााँगे का घोड़ा ठदन-भर का थका हुआ था, कहााँ िक दौड़िा? कोचवान बार-बार चाबकु मारिा था, पर घोड़ा गदफन ठहला कर रह जािा था। टाउन हॉल आि-ेआि ेबीस ममनट लग गए। दोनों मठहलाएाँ जल्दी से उिर कर हॉल के अदंर गईं, िो देखा कक अमिृराय मचं पर खड़ ेहैं और सकैड़ों आदमी नीचे खड़ ेशोर मचा रहे हैं। मठहलाओं के मलए एक बाज में चचकें पड़ी हुई थीं। दोनों चचक की आड़ में आ खड़ी हुईं। भीड़ इिनी थी और इिने शोहदे जमा थे कक पे्रमा को मचं की ओर जाने का साहस न हुआ।

कई आदममयों ने चचल्ला कर कहा - 'धमफ का र्द्ोही है।'

कई आवाजें - 'और क्या हो िमु? बिाओ कौन-कौन स ेवेद पढे़ हो?'

अमिृराय ने कफर कहा - 'मैं जानिा ह ाँ, कुछ लोग यहााँ सभा की कायफवाही में त्तवघ्न डालने का तनश्चय करके आए हैं। जजन लोगों ने उन्हें मसखा-पढ़ा कर भेजा है, उन्हें मैं जानिा ह ाँ।'

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अमिृराय के पक्ष के एक यवुक ने झल्ला कर कहा - 'आपको यठद यहााँ रहना है, िो शांि हो कर व्याख्यान सतुनए, नहीं िो हॉल से चले जाइए।'

अमिृराय ने जोर से कहा - 'क्या आप लोग फसाद करने पर िलेु हुए हैं? याद रखखए, अगर फसाद हुआ, िो इसका दातयत्व आपके ऊपर होगा।'

इस पर कफर चारों ओर िामलयााँ पड़ीं, और कहकहों ने हॉल की दीवारें ठहला दीं।

मठहला ने प्रकंत्तपि स्वर में कहा - 'सज्जनो, आपके सम्मखु आपकी बहन-आपकी कन्या खड़ी आपसे एक मभक्षा मााँग रही है। उसे तनराश न कीजजएगा...'

मठहला - 'मैं आपके शहर के रईस लाला बदरीप्रसाद की कन्या ह ाँ और इस नाि ेसे आपकी बहन और बेटी ह ाँ। ईश्वर के मलए बठै जाइए। बहन को क्या अपने भाइयों से इिनी याचना करने का भी अचधकार नहीं है? यह सभा आज इसमलए की गई है कक आपसे इस नगर में एक ऐसा स्थान बनाने के मलए सहायिा मााँगी जाए, जहााँ हमारी अनाथ आश्रयहीन बहनें अपनी मान-मयाफदा की रक्षा करि ेहुए शांति से रह सकें । कौन ऐसा महुल्ला है, जहााँ ऐसी दस-पााँच बहनें नहीं हैं। उनके ऊपर जो बीििी है वह क्या आप अपनी आाँखों से नहीं देखि?े कम-से-कम अनमुान िो कर ही सकि ेहैं। वे जजधर आाँखें उठािी हैं, उधर ही उन्हें त्तपशाच खड़ ेठदखाई देि ेहैं, जो उनकी दीनावस्था को अपनी कुवासनाओ ंके प रा करने का साधन बना लेि ेहैं। हमारी लाखों बहनें इस भााँति केवल जीवन-तनवाफह के मलए पतिि हो जािी हैं। क्या आपको उन पर दया नहीं आिी? मैं त्तवश्वास से कह सकिी ह ाँ कक अगर उन बहनों को रखी रोठटयों और मोटे कपड़ों का भी सहारा हो, िो वे अिं समय िक अपने सिीत्व की रक्षा करिी रहें। स्री हारे दजे की दरुाचररणी होिी है। अपने सिीत्व से अचधक उसे ससंार की और ककसी वस्ि ुपर गवफ नहीं होिा, न वह ककसी चीज को इिना म ल्यवान समझिी है। आप सभी सज्जनों के कन्याएाँ और बहनें होंगी। क्या उनके प्रति आपका कोई किफव्य नहीं है? और आप लोगों में ऐसा एक भी परुुष है, जो इिना पाषाण हृदय हो, मैं यह नहीं मान सकिी। यह कौन कह सकिा है कक अनाथों की जीव-रक्षा धमफ-त्तवरुद्ध है? जो यह कहिा है वह धमफ के नाम को कलकंकि करिा है। दया धमफ का म ल है। मेरे भाई बाब अमिृराय ने ऐसा एक स्थान बनवाने का तनश्चय ककया है। वह अपनी सारी सपंत्ति उस पर अपफण कर चुके हैं। अब वह इस काम में आपकी मदद मााँग रहे हैं। जजस आदमी के पास कल लाखों की जायजाद थी, आज मभखारी बन कर आपसे मभक्षा मााँग रहा है। आपमें साम्यफ हो िो मभक्षा दीजजए। न साम्यफ हो िो कह दीजजए - भाई, द सरा द्वार

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देखो, मगर उसे ठोकर िो न माररए, उसे गामलयााँ िो न दीजजए। यह व्यवहार आप जैसे परुषों को शोभा नहीं देिा।'

द सरे सज्जन बोले - 'और बाब दाननाथ भी िो हैं?'

एक मोटे िाजे पगड़ी वाले आदमी ने कहा - 'और जो हम कमलाप्रसाद बाब से पछुाय देई? हमका इहााँ का लेबे का रहा जौन औिने, वही लोग भेजने रहा, िब आयन।'

पे्रमा ने इसी िरह कोई आध घटें िक अपनी मधुर वाणी, अपने तनभफय सत्य प्रेम और अपनी प्रतिभा स ेलोगों को मरं-मगु्ध रखा। उसका आकजस्मक रप से मचं पर आ जाना जाद का काम कर गया। मठहला का अपमान करना इिना आसान न था, जजिना अमिृराय का। परुुष का अपमान एक साधारण बाि है। स्री का अपमान करना, आग में क दना है । कफर स्री कौन? शहर के प्रधान रईस की कन्या। लोगों के त्तवचारों में क्रांति-सी हो गई। जो त्तवघ्न डालने आए थे, वे भी पग उठे। जब पे्रमा ने चंदे के मलए प्राथफना करके अपना आाँचल फैलाया, िो वह दृश्य सामने आया, जजसे देख कर देविा भी प्रसन्न हो जाि।े सबसे बड़ी रकमें उन गुडंों ने दीं, जो यहााँ लाठी चलाने आए थे, गुडं ेअगर ककसी की जान ले सकि ेहैं, िो ककसी के मलए जान भी दे सकि ेहैं। उनको देख कर बाबओुं को भी जोश आया। जो केवल िमाशा देखने आए थे, वे भी कुछ-न-कुछ दे गए। जन-सम ह त्तवचार से नहीं, आवेश से काम करिा है। सम ह में ही अच्छे कामों का नाश होिा है और बरेु कामों का भी। ककिने मनषु्य िो घर से रुपए लाए। सोने की अगं ठठयों, िाबीजों और कंठों का ढेर लग गया, जो गुडंों की कीति फ को उज्ज्वल कर रहा था। दस-बीस गुडं ेिो पे्रमा के चरण छ कर घर गए। वे इिने प्रसन्न थे, मानो िीथफ करके लौटे हों।

पे्रमा ने हाँस कर कहा - 'जब इन उजड्डों को मना मलया, िो उन्हें भी मना ल ाँगी।'

प्रेमा ने कठोर हो कर कहा- 'अपने ही हाथों िो।'

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अध्याय 11 प णाफ प्रािुःकाल और ठदनों से आध घटंा पहले उठी। उसने दबे पााँव समुमरा के कमरे में कदम रखा। वह देखना चाहिी थी कक समुमरा सोिी है या जागिी। शायद वह उसकी स रि देख कर तनश्चय करना चाहिी थी कक उसे राि की घटना की कुछ खबर है अथवा नहीं। समुमरा चारपाई पर पड़ी कुछ सोच रही थी। प णाफ को देख कर वह मसु्करा पड़ी। मसु्कराने की क्या बाि थी, यह िो वह जाने, पर प णाफ का कलेजा सन्न-से हो गया। चेहरे का रंग उड़ गया। भगवान, कहीं इसने देख िो नहीं मलया?

प्रश्न बबल्कुल साधारण था, ककंि ुप णाफ को ऐसा जान पड़ा कक यह उस मखु्य त्तवषय की भ ममका है। इिने सबेरे जाग जाना ऐसा लांछन था, जजसे स्वीकार करने में ककसी भयकंर बाधा की शकंा हुई। बोली - 'क्या बहुि सबेरा है? रोज ही की बेला िो है।'

प णाफ का कलेजा धक-धक करने लगा। यह द सरा और पहले से भी बड़ा लांछन था। इसे वह कैसे स्वीकार कर सकिी थी? बोली - 'नहीं बहन, िमु्हें भ्रम हो रहा है। राि बहुि सोई। एक ही नींद में भोर हो गया। बहुि सो जाने से भी आाँखें लाल हो जािी हैं।'

प णाफ ने जोर दे कर कहा - 'वाह! इिनी बाि िमु्हें माल म नहीं। िमु्हें अलबिा नींद नहीं आई। क्या सारी राि जागिी रहीं?'

प णाफ - 'िमु िो व्यथफ का मान ककए बठैी हो बहन! एक बार चली क्यों नहीं जािी?'

यह कहि-ेकहि ेउसे राि का अपमान याद आ गया। वह घटंों द्वार पर खड़ी थी। वह जागि ेथे - अवश्य जागि ेथे, कफर भी ककवाड़ न खोले। त्योररयााँ चढ़ा कर बोली - 'कफर क्यों मनाने जाऊाँ ? मैं ककसी का कुछ नहीं जानिी। चाहे एक खचफ ककया, चाहे सौ, मेरे बाप ने ठदए और अब भी देि ेजाि ेहैं। इनके घर में पड़ी ह ाँ, इिना गनुाह अलबिा ककया है। आखखर परुुष अपनी स्री पर क्यों इिना रोब जमािा है? बहन, कुछ िमु्हारी समझ में आिा है?'

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समुमरा - 'रक्षा की है िो अपने स्वाथफ से, कुछ इसमलए नहीं कक जस्रयों के प्रति उनके भाव बड़ ेउदार हैं। अपनी जायदाद के मलए सिंान की जररि न होिी, िो कोई स्री की बाि भी न प छिा। जो जस्रयााँ बााँझ रह जािी हैं, उनकी ककिनी ददुफशा होिी है रोज ही देखिी हो। हााँ, लपंटों की बाि छोड़ो, जो वेश्याओ ंपर प्राण देि ेहैं।'

समुमरा - 'वह तनकम्मे परुुष होंगे।'

प णाफ - 'यह िो ससंार की प्रथा ही है, बहन। मदफ स्री से बल में, बदु्चध में, पौरुष में अक्सर बढ़ कर होिा है, इसीमलए उसकी हुक मि है। जहााँ परुुष के बदले स्री में यह गणु हैं, वहााँ जस्रयों ही की चलिी है। मदफ कमा कर खखलािा है, क्यों रोब जमाने से भी जाए।'

प णाफ - 'लकेकन प्रश्न िो रक्षा का है। उनकी रक्षा कौन करेगा?'

प णाफ - 'लपंटों के मारे उनका रहना कठठन हो जाएगा।'

प णाफ ने गभंीर भाव से कहा - 'समय आएगा, िो वह भी हो जाएगा, बहन अभी िो स्री की रक्षा मदफ ही करिा है।'

प णाफ - 'ये सारी बािें िभी िक हैं, जब िक पति-देव रठे हुए हैं। अभी आ कर गले लगा लें, िो िमु परै च मने लगोगी।'

इिने में कहार ने आ कर कहा - 'बह जी, बाब जी ने रेशमी अचकन मााँगी है।'

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कहार ने हाथ जोड़ कर कहा - 'सरकार, तनकाल के दे दें, नाहीं हमार कंुदी होय लगी, चमड़ी उधेड़ ल ेहैं।'

कहार चला गया, िो प णाफ ने कहा - 'बहन, क्यों रार बढ़ािी हो। लाओ मझु ेकंुजी दे दो, मैं तनकाल कर दे द ाँ। उनका क्रोध जानिी हो?'

कहार ने लौट कर कहा - 'सरकार कहि ेहैं कक अचकन लोहे वाली सदं क में धरी है।'

कहार - 'इ िो हम नहीं कहा सरकार! आप द नों परानी तछन भर मााँ एक्के होइ हैं, बीच में हमारा कुटम्मस होइ जाई।'

कहार मुाँहलगा था। बोला - 'सरकार का जजिना मारै का होय मार लें, मदुा बाब जी से न त्तपटावें। अस घ संा मारि हैं सरकार कक कोस-भर ल ैधमाका सनुाि है।'

कहार - 'अरे सरकार, जो ई होि ि का प छै का रहा। मेहररया अस गनुन की प री ममली है कक बाि पीछ करि है, झाड़ पहले चलावि है। जो सरकार, सनु-भर पावे कक कौनो दसुरी मेहररया से हाँसि रहा, िो खड़ ेलील जाए, सरकार, खड़ ैलील जाए! थर-थर कााँत्तपि है, बह जी से िौर इिना नहीं डरेाइि है।'

कहार - 'जाइि है सरकार, आज भले का मुाँह नहीं देखा जान परि है।'

समुमरा ने उसका आाँचल पकड़ मलया - 'भागिी कहााँ हो? जरा िमाशा देखो! क्या शरे हैं जो खा जाएाँगे।'

समुमरा - 'कुवचन कह बठैें गे, िो कुवचन सनुेंगे।'

समुमरा - हाथ क्या चला देंगे, कोई हाँसी है? कफर स रि न देख ाँगी।

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कमलाप्रसाद ने कमरे में कदम रखि ेही कठोर स्वर में कहा - 'बठैी गप्पें लड़ा रही हो। जरा-सी अचकन मााँग भेजी, िो उठि ेन बना। बाप से कहा होिा, ककसी करोड़पति सेठ के घर ब्याहि।े यहााँ का हाल िो जानि ेथे।'

कमलाप्रसाद - 'िमु िो बड़ी समझदार थीं, िमु्हीं ने पिा लगा मलया होिा।'

कमलाप्रसाद - 'नहीं झगड़ा करना चाहिा ह ाँ।'

कमलाप्रसाद - 'मेरी अचकन तनकालिी हो या नहीं?'

कमलाप्रसाद - 'मैं िो रोब से ही कहिा ह ाँ।'

कमलाप्रसाद - 'िमु्हें तनकालना पड़गेा।'

कमलाप्रसाद - 'अनथफ हो जाएगा समुमरा, अनथफ हो जाएगा। कहे देिा ह ाँ।'

कमलाप्रसाद - 'िमु अपने घर चली जाओ।'

कमलाप्रसाद - 'लखपिी बाप का घर िो है।'

समुमरा ने ऐंठ कर कहा - 'बहन, मुाँह देखे की सनद नहीं। काहे के यह बड़ ेसमझदार बन गए और मैं बेसमझ हो गई? इसी म ाँछ से। जो आदमी मझु जैसी भोली-भाली स्री को आज िक अपनी मटु्ठी में न कर सका, वह समझदार नहीं, म खफ भी नहीं, बलै है। आखखर मैं क्यों इनकी धौंस सह ाँ। जो दस बािें प्यार

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की करे, उसकी एक धौंस भी सह ली जािी। जजसकी िलवार सदा म्यान स ेबाहर रहिी हो, उसकी कोई कहााँ िक सहे?'

समुमरा - 'मेरी बला रोए। हााँ, िमु रोओगे।'

समुमरा तिलममला उठी। इस चोट का वह इिना ही कठोर उिर न दे सकिी थी। वह यह कह न सकिी थी कक मैं भी हजार शाठदयााँ कर सकिी ह ाँ। तिरस्कार से भरे हुए स्वर में बोली - 'जो परुुष एक को न रख सका, वह सौ को क्या रखेगा। हााँ, चकला बसाए िो द सरी बाि है।'

दो-िीन ममनट िक दोनों मठहलाएाँ मौन रहीं, दोनों ही अपने-अपने ढंग पर इस सगं्राम की त्तववचेना कर रही थीं। समुमरा त्तवजय गवफ से फ ली हुई थी, उसकी आत्मा उसका लेशमार भी तिरस्कार नहीं कर रही थी। उसने वही ककया, जो उसे करना चाठहए था। ककंि ुप णाफ के त्तवचार में सारा दोष समुमरा के ही मसर था। जरा उठ कर अचकन तनकाल देिी, िो इस ठायाँ-ठायाँ की नौबि ही क्यों आिी। औरि को मदफ के मुाँह लगना शोभा नहीं देिा। न जाने इनके मुाँह से ऐसे कठोर शब्द कैसे तनकले? पत्थर का कलजेा है। बेचारे कमलाप्रसाद बाब िो जैसे ठगे रह गए। ऐसी औरि की अगर मदफ बाि न प छे िो चगला कैसा?

प णाफ - 'सनुाने में िो िमुने कोई बाि उठा नहीं रखी, बहन द सरा मदफ होिा िो जाने क्या करिा।'

प णाफ - 'बहन, और ठदनों की िो मैं नहीं चलािी पर आज िमु्हारी ही हठधमी थी।'

प णाफ - 'मैंने िो ऐसी कोई बाि नहीं कही बहन, मझु पर नाहक बबगड़िी हो।'

प णाफ को यह अतंिम वाक्य बाण के समान लगा। वह हक्की-बक्की हो कर समुमरा का मुाँह िाकने लगी। यद्यत्तप वह सदैव समुमरा की ठकुरसहुािी ककया करिी थी, कफर भी वह यह जानिी थी कक जजस ठदन कमलाप्रसाद साडड़यााँ लाए थे, उसी ठदन से समुमरा उसे सदेंह की दृजष्ट से देखने लगी है, ककंि ुउस अवसर पर प णाफ ने कमलाप्रसाद का उपहार वापस करके अपनी समझ में सदेंह को ममटा देने का सफल

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प्रयत्न ककया था। कफर आज समुमरा अकारण ही क्यों उस पर यों तनदफय प्रहार कर रही है। उसे कफर भ्रम हुआ कक कहीं समुमरा ने राि की बाि जान िो नहीं ली। वह भीि और आहि हो कर दबी जबान से बोली - 'बहन, िमु्हारे मन में जो बाि हो, वह साफ-साफ कह दो। मझु अनाथ को जला कर क्या पाओगी? अगर मेरा यहााँ रहना िमु्हें बरुा लगिा है िो मैं आज ही मुाँह में कामलख लगा कर यहााँ से चली जाऊाँ गी। ससंार में लाखों त्तवधवाएाँ पड़ी हैं, क्या सभी के रक्षक बठेै हैं? ककसी भााँति उनके ठदन भी कटि ेही हैं। मेरे भी उसी भााँति कट जाएाँगे और कफर कहीं आश्रय नहीं है िो गगंा िो कहीं नहीं गई है।'

प णाफ ने ये बािें मानो सनुी ही नहीं। बहुएाँ पति से रठ कर प्रायुः ऐसी त्तवरागप णफ बािें ककया ही करिी हैं। यह कोई नई बाि नहीं थी। वह अपने ही को सनुा कर बोली - 'मैं जानिी थी कक अपने झोंपड़ ेस ेपााँव बाहर तनकालना मेरे मलए बरुा होगा। जान-ब झ कर मैंने अपने पााँव में कुल्हाड़ी मारी। मैं कमलाप्रसाद बाब की बािों में आ गई। इिनी जग-हाँसाई और भाग में मलखी थी।'

उसने अपना वाक्य समाप्ि िो कर ठदया, पर मखु की चेष्टा से ज्ञाि होिा था कक वह और कुछ कहना चाहिी है, लेककन ककसी कारणवश नहीं कह रही है।

समुमरा - 'िो जािी कहााँ हो, जरा बठैो िो।'

प णाफ इधर अपने कमरे में आ कर रोने लगी। उधर समुमरा ने हारमोतनयम पर गाना शरु ककया -

यह गाना था या प णाफ पर त्तवजय पाने का आह्लाद! प णाफ को िो यह त्तवजय-गान-सा प्रिीि हुआ। एक-एक स्वर उसके हृदय पर एक-एक शर के समान चोट कर रहा था। क्या अब इस घर में उसका तनवाफह हो सकिा है? असभंव! न जाने वह कौन-सी मनह स घड़ी थी, जब वह इस घर में आई? अपने उस झोंपड़ ेमें रह कर मसलाई करके या चक्की पीस कर क्या वह जीवन व्यिीि न कर सकिी थी? बेचारी बबल्लो अिं िक उस ेसमझािी रही, पर भाग्य में िो धक्के खाने मलखे थे, उसकी बाि कैसे मानिी?

प णाफ राि ही से एकांि में राि के समय कमलाप्रसाद के पास जाने पर पछिा रही थी। उन भले आदमी को भी उस समय चुहल करने की स झ गई। मगर वह साड़ी मझु पर ख ब खखल रही थी। मझुे वहााँ जाना

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ही न चाठहए था, पर एक बार और उनसे ममलना होगा। मैं द्वार पर खड़ी रह ाँगी, मझुे कमरे में जाने की जररि ही क्या है? खड़-ेखड़ ेकह द ाँगी - बाब जी, अब मझुे आप जाने दीजजए और कहीं जगह नहीं है िो बाब अमिृराय का त्तवधवाश्रम िो है। दस-पााँच त्तवधवाएाँ वहााँ रहिी भी िो हैं। मैं भी वहीं चली जाऊाँ , िो क्या हजफ है? वह समझाएाँगे िो बहुि, समुमरा को डााँटने पर भी ियैार हो जाएाँगे, पर इस डााँट-डपट स ेऔर भी झमेला बढे़गा, िरह-िरह के सदेंह लोगों के मन में पदैा होंगे। अभी कम-से-कम लोगों को मझु पर दया आिी है, कफर िो कोई बाि भी न प छेगा। त्तवधवा को कुलटा बनि ेककिनी देर लगिी है।

प णाफ ने द्वार पर खड़-ेखड़ ेकहा - 'मेरे वहााँ आने का कोई काम नहीं है। मैं केवल आपसे त्तवदा मााँगने आई ह ाँ। इस घर में अब मेरा तनवाफह नहीं हो सकिा। आखखर मैं भी िो आदमी ह ाँ। कहााँ िक सबका मुाँह िाक ाँ और ककस-ककस की खशुामद कराँ ?'

प णाफ - 'मेरे अदंर आने की जररि नहीं। यों ही िाने ममल रहे हैं, कफर िो न जाने क्या कलकं लग जाएगा।'

प णाफ - 'ककसी ने ठदया हो, आपका प छना और मेरा कहना दोनों व्यथफ है। िानेवाली बाि होगी िो सभी िाने देंगे। आप ककसी का मुाँह नहीं बदं कर सकि।े केले के मलए िो ठीकरा भी पनैी छुरी बन जािा है। सबसे अच्छा यही है कक मैं यहााँ से चली जाऊाँ । आप लोगों ने मेरा इिने ठदन पालन ककया, इसके मलए मेरा एक-एक रोआाँ आप लोगों का जस गाएगा।'

'कही-ंन-कहीं ठठकाना लग ही जाएगा और कुछ न होगा िो गगंा जी िो हैं ही।'

प णाफ ने तिरस्कार के भाव से देख कर कहा - 'कैसी बाि मुाँह से तनकालि ेहो, बाब जी। मेरा प्राण भी आप लोगों के काम आए िो मझु ेउसको देने में आनदं ममलेगा, लेककन बाि बढ़िी जािी है और आगे चल कर न जाने और ककिनी बढ़ें इसमलए मेरा यहााँ से जाना ही अच्छा है।'

प णाफ द्वार से चचपकी हुई बोली - 'पहले द्वार खोल दो िो मैं बिाऊाँ । क्यों व्यथफ मेरा जीवन नष्ट कर रहे हो।'

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प णाफ का तनष्कपट हृदय इस पे्रम-दशफन से घोर असमजंस में पड़ गया। उसका एक हाथ ककवाड़ की चटखनी पर था, वह आप-ही-आप चटखनी के पास से हट गया। वह स्वय ंएक कदम आग ेबढ़ आई। उसकी दशा उस मनषु्य की-सी हो गई, जजसने अनजाने में ककसी बालक का परै कुचल ठदया हो और जो उसे वेदना से छटपटाि ेदेख, जल्दी से दौड़ कर उसे गोद में उठा ले। कमलाप्रसाद जजस ठदन साड़ी लाए थे, उसी ठदन से प णाफ को कुछ शकंा हो गई थी, पर उसने परुषों का त्तवनोद समझ मलया था। अिएव इस समय यह पे्रमालाप सनु कर भयभीि हो गई। घबराई हुई आवाज से बोली - 'ऐसी बािें न करो, बाब जी। मेरा लोक और परलोक मि बबगाड़ो। कफर मैं सचमचु मरने थोड़ ेही जा रही ह ाँ। कहीं-न-कहीं िो रह ाँगी ही। कभी-कभी आिी रह ाँगी। मगर इस समय मझुे जाने दो। मेरी बदनामी से क्या िमु्हें दुुःख न होगा?'

यह कहि-ेकहि ेकमलाप्रसाद का गला भर आया। उसने रमाल तनकाल कर आाँखें पोंछीं, मानो उनमें आाँस छलक रहे हैं।

कमलाप्रसाद ने समीप जा कर उसका हाथ पकड़ मलया और गला साफ करके बोला - 'प णाफ, िमु जजस सकंट में हो, मैं उसे जानिा ह ाँ, लेककन सोचो, एक जीवन का म ल्य क्या एक प वफ-स्मतृि के बराबर भी नहीं? मैं िमु्हारी पतिभजक्ि के आदशफ को समझिा ह ाँ। अपने स्वामी से िमु्हें ककिना पे्रम था, यह देख चुका ह ाँ। उन्हें िमुसे ककिना पे्रम था, यह भी देख चकुा ह ाँ। अक्सर पाकफ में हरी-भरी घास पर लेटे हुए वह घटंों िमु्हारा कीति फगान ककया करि ेथे। मैं सनु-सनु कर उनके भाग्य को सराहिा था और इच्छा होिी थी कक िमु्हें एक बार पा जािा िो िमु्हारे चरणों पर मसर रख कर रोिा। समुमरा से ठदन-ठदन घणृा होिी जािी है। यह उन्हीं का बोया हुआ बीज है, जो फ लने और फलने के मलए त्तवकल हो रहा है।'

कमलाप्रसाद ने मसर ठोक कर कहा - 'हाय, कफर वही बाि। अच्छी बाि है। जाओ, एक बार भी बठैने को न कह ाँगा।'

कमलाप्रसाद ने कहा - 'अब जािी क्यों नहीं हो? मैंने िमु्हें बााँध िो नहीं मलया है।'

कमलाप्रसाद ने उदासीन भाव से कहा - 'िमु्हें मेरे प्राणों की रक्षा की क्या परवाह जजस िरह िमु्हारे ऊपर मेरा कुछ जोर नहीं है, उसी िरह मेरे ऊपर भी िमु्हारा कोई जोर नहीं है। या िमु्हें भ ल ही जाऊाँ गा, या

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प्राणों का अिं ही कराँ गा, मगर इससे िमु्हारा क्या बनिा-बबगड़िा है। जी में आए, जरा-सा शोक कर लेना, नहीं वह भी न करना। मैं िमुसे चगला करने न आऊाँ गा।'

कमलाप्रसाद - 'इसका यह आशय हुआ कक िमु मझुे न जीने दोगी, न मरने। िमु्हारी इच्छा है सदैव िड़पिा रह ाँ। यह दशा मझुसे न सही जाएगी। िमु जा कर आराम से लेटो और मेरी चचिंा छोड़ दो। मगर नहीं, यह मेरी भ ल है, जो मैं समझ रहा ह ाँ कक िमु मेरे प्राणों की चचिंा से मझुसे यह वायदा करा रही हो। यह केवल मभखारी को मीठे शब्दों में जवाब देने का एक ढंग है। हााँ, वायदा करिा ह ाँ कक अपने प्राणों की रक्षा करिा रह ाँगा, उसी िरह जैसे िमु मेरे प्राणों की रक्षा करिी हो।'

'िो त्तप्रये, यह गााँठ में बााँध लो कक कमलाप्रसाद त्तवरह-वदेना सहने के मलए जीत्तवि नहीं रह सकिा।'

कमलाप्रसाद ने आवेश में आ कर कहा - 'अच्छा अब चुप रहो, प णाफ। ऐसी बािों से मझुे मानमसक कष्ट हो रहा है। िमु समझ रही हो कक मैं अपनी नीच वासना की िजृप्ि के मलए िमु्हें मायाजाल में फाँ सा रहा ह ाँ। यह िमु मेरे साथ घोर अन्याय कर रही हो। िमु्हें कैसे त्तवश्वास ठदलाऊाँ कक यह मायाजाल नहीं, शदु्ध आत्म-समपफण है। यठद इसका प्रमाण चाहिी हो, िो यह लो...'

यठद प णाफ एक क्षण ही धैयफ से बठैी रह सकिी िो उसे अवश्य यह प्रमाण ममल जािा, पर रमणी का कािर हृदय सहम उठा। यह बाि जान कर ही कमलाप्रसाद ने यह अमभनय ककया था। प णाफ ने िलवार उसके हाथ स ेछीन ली और बोली - 'मैं िो िमुसे कोई प्रमाण नहीं मााँग रही ह ाँ।'

'भ ल हुई, क्षमा करो।'

प णाफ ने िलवार को म्यान में रखि ेहुए कहा - 'िमु इसी िलवार से मेरे जीवन का अिं कर सकि ेिो ककिना अच्छा होिा? मझुे त्तवश्वास है कक मैं जरा भी न खझझकिी, मसर झकुाए खड़ी रहिी।'

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प णाफ ने पान के दो बीड़ ेबना कर कमलाप्रसाद को देने के मलए हाथ बढ़ाया। कमलाप्रसाद ने पान ले कर कहा - 'भोजन के बाद कुछ दक्षक्षणा ममलनी चाठहए।'

कमलाप्रसाद पान बढ़ािा हुआ बोला - 'मेरी दक्षक्षणा यही है कक यही बीड़ ेमेरे हाथ से खा लो।'

कमलाप्रसाद ने बीड़ ेउसके मुाँह के समीप ले जा कर कहा - 'मैं अपने हाथ से खखलाऊाँ गा।'

'जी नहीं, गरु जी ने मझुे यह पाठ नहीं पढ़ाया है।'

प णाफ ने मुाँह खोल ठदया और कमलाप्रसाद ने उसे पान खखला ठदया। प णाफ की छािी धक-धक कर रही थी। कमलाप्रसाद कहीं कोई नटखटी न कर बठेै। मगर कमलाप्रसाद इिना बेशउर न था कक समीप आि ेहुए मशकार को द र से ही चौंका देिा। उसने पान खखला ठदया और चारपाई पर बठै कर बोला - 'अब यहााँ से कहीं जाने का नाम मि लेना। सारा जमाना छ ट जाए, पर िमु मझुसे नहीं छ ट सकिी। जीवन-भर के मलए यही घर िमु्हारा घर है और मैं िमु्हारा दास ह ाँ। जजस ठदन िमुने यहााँ से जाने का नाम मलया, उसी ठदन मैंने ककसी िरफ का रास्िा मलया।'

कमलाप्रसाद ने दृढ़िा से कहा - 'ऐसी शकंाओं को मन में न आने दो त्तप्रये, आखखर त्तववाठहिा ही क्या परुुष को जजंीर से बााँध रखिी है। वहााँ भी िो परुुष वचन ही का पालन करिा है? जो वचन का पालन नहीं करना चाहिा, क्या त्तववाह उसे ककसी िरह मजब र कर सकिा है? समुमरा मेरी त्तववाठहिा हो कर ही क्या ज्यादा सखुी हो सकिी है? यह िो मन ममले की बाि है। जब त्तववाह के अवसर पर बबना जाने-ब झ ेकही जाने वाली बाि का इिना महत्व है, िो क्या पे्रम से भरे हृदय स ेतनकलने वाली बाि का कोई महत्व ही नही?ं जरा सोचो। आदमी जीवन में सखु ही िो चाहिा है या और कुछ? कफर जजस प्राणी के साथ उसका जीवन सखुमय हो रहा है, उसे वह कैसे छोड़ सकिा है, उसके साथ कैसे तनठुरिा या कपट कर सकिा है?'

कमलाप्रसाद ने मसु्करा कर कहा - 'नहीं, िमु भला नादान हो सकिी हो, राम-राम! िमु वेद-शास्र सभी घोटे बठैी हो। अच्छा बिाओ, त्तववाह कै प्रकार के होि ेहैं?'

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'बड़ी बदु्चधमिी हो, िो इसका मिलब समझो?'

कमलाप्रसाद ने त्तववाह के साि भेद बिाए। ककस समय में कौन प्रथा प्रचमलि थी, उसके बाद कौन-सी प्रथा चली, और विफमान समय में ककन-ककन प्रथाओं का ररवाज है, यह सारी कथा बहुि ही बेमसर-परै की बािों के साथ कौि हलमग्न प णाफ से कह सनुाई। स्मतृियों का धुरंधर ज्ञािा भी इिने सदेंह-रठहि भाव से इस त्तवषय की चचाफ न कर सकिा।

'हााँ, य रोप में इसका बहुि ररवाज है। मसुलमानों में भी है। इस देश में भी पहले था, पर अब एक कान न के अनसुार कफर इसका ररवाज हो रहा है।'

'कुछ नहीं, स्री-परुुष एक-द सरे को वचन देि ेहैं, बस त्तववाह हो जािा है। मािा-त्तपिा, भाई-बधंु, पडंडि-परुोठहि ककसी का काम नहीं। हााँ, वर और कन्या दोनों ही का बामलग हो जाना जररी है।'

कमलाप्रसाद ने प्रतिवाद ककया - 'मेरी समझ में िो जजसे िमु त्तववाह समझ रही हो, वही लड़कों का खेल है। ढोल-मजीरा बजा, आतिशबाजजयााँ छ टीं और दो अबोध बालक, जो त्तववाह का ममफ िक नहीं समझि,े एक-द सरे के गले जीवन-पयिं के मलए मढ़ ठदए गए। सच प छो िो यही लड़कों का खेल है।'

कमलाप्रसाद ने उिेजजि हो कर कहा - 'दतुनया अधंी है, उसके सारे व्यापार उल्टे हैं। मैं ऐसी दतुनया की परवाह नहीं करिा। मनषु्य को ईश्वर ने इसमलए बनाया है कक वह रो-रो कर जजंदगी के ठदन काटे, केवल इसमलए कक दतुनया ऐसा चाहिी है? साधारण कामों में जब हमसे कोई भ ल हो जािी है, िो हम उसे िरंुि सधुारि ेहैं। िब जीवन को हम क्यों एक भ ल के पीछे नष्ट कर दें। अगर आज ककसी दैवी बाधा से यह मकान चगर पड़ ेिो हम कल ही इसे बनाना शरु कर देंगे, मगर जब ककसी अबला के जीवन पर दैवी आघाि हो जािा है, िो उससे आशा की जािी है कक वह सदैव उसके नाम को रोिी रहे। यह ककिना बड़ा अन्याय है। परुषों ने यह त्तवधान, केवल अपनी काम-वासना को िपृ्ि करने के मलए ककया है। बस, इसका और कोई अथफ नहीं। जजसने यह व्यवस्था की, वह चाहे देविा हो या ऋत्तषफ अथवा महात्मा, मैं उसे मानव समाज का सबसे बड़ा शर ुसमझिा ह ाँ। जस्रयों के मलए पतिव्रि-धमफ की पख लगा दी। पनुुः ससं्कार होिा,

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िो इिनी अनाथ जस्रयााँ उसके पजंे में कैसे फाँ सिीं। बस, यही सारा रहस्य है। न्याय िो हम िब समझि,े जब परुषों को भी यही तनषधे होिा।'

'और क्या? ध िों का पाखंड है।'

'केवल इसमलए कक उनका चररर अच्छा नहीं। वह त्तववाह-बधंन में न पड़ कर छ टे सााँड़ बने रहना चाहि ेहैं। उनका त्तवधवाश्रम केवल उनका भोगालय होगा, इसीमलए हम उनका त्तवरोध कर रहे हैं। यठद वह त्तवधवा से त्तववाह करना चाहि ेहैं, िो देश में त्तवधवाओं की कमी है? पर वह त्तववाह न करेंगे। बाजे आदममयों को टट्टी की आड़ से मशकार खेलने में ही मजा आिा है, मगर ईश्वर ने चाहा िो उनका आश्रम बन कर ियैार न हो सकेगा। सारे शहर में उन्हें कौड़ी भर की मदद न ममलेगी। (घड़ी की ओर देख कर) अरे! दो बज रहे हैं अब त्तवलबं नहीं करना चाठहए। आओ, उस दीपक के सामने ईश्वर को साक्षी करके हम शपथ खाएाँ कक जीवन-पयिं हम पति-पत्नी व्रि का पालन करेंगे।'

यह कहिी हुई वह ककवाड़ खोल कर िजेी से बाहर तनकल गई और कमलाप्रसाद खड़ ेिाकि ेरह गए। चचडड़या दाना चुगि-ेचुगि ेसमीप आ गई थी; पर ज्यों ही मशकारी ने हाथ चलाया, वह फुर से उड़ गई; मगर क्या वह सदैव मशकारी के प्रलोभनों से बचिी रहेगी?

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अध्याय 12 प णाफ ककिना ही चाहिी थी कक कमलाप्रसाद की ओर से अपना मन हटा ले, पर यह शकंा उसके हृदय में समा गई थी कक कहीं इन्होंने सचमचु आत्म-हत्या कर ली िो क्या होगा? राि को वह कमलाप्रसाद की उपेक्षा करके चली िो आई थी, पर शषे राि उसने चचिंा में काटी। उसका त्तवचमलि हृदय पति-भजक्ि, सयंम और व्रि के त्तवरुद्ध भााँति-भााँति की िकफ नाएाँ करने लगा। क्या वह मर जािी, िो उसके पति पनुत्तवफवाह न करि?े अभी उनकी अवस्था ही क्या थी? पच्चीस वषफ की अवस्था में क्या त्तवधुर जीवन का पालन करि?े कदात्तप नहीं। अब उसे याद ही न आिा था कक पडंडि वसिं कुमार ने उसके साथ कभी इिना अनरुक्ि पे्रम ककया था। उन्हें इिना अवकाश ही कहााँ था। सारे ठदन िो दफ्िर में बठेै रहि ेथे, कफर उन्होंने उसे सखु ही क्या पहुाँचाया? एक-एक पसैे की िगंी रहिी थी, सखु क्या पहुाँचाि।े उनके साथ भी रो-रो कर ही जजदंगी कटिी थी। क्या रो-रो कर प्राण देने के मलए उसका जन्म हुआ है? स्वगफ और नरक सब ढकोसला है। अब इससे दुुःखदाई नरक क्या होगा? जब नरक ही में रहना है, िो नरक ही सही। कम-से-कम जीवन के कुछ ठदन आनदं से कटेंगे; जीवन का कुछ सखु िो ममलेगा। जजससे पे्रम हो, वही अपना सब कुछ। त्तववाह और ससं्कार सब ठदखावा है? चार अक्षर ससं्कृि पढ़ लेने से क्या होिा है? मिलब िो यही है न ककसी प्रकार स्री का पालन-पोषण हो। उाँ ह, इस चचिंा में क्यों कोई मरे? त्तववाह क्या स्री को परुुष से बााँध देिा है? वह भी मन ममले ही का सौदा है। स्री और परुुष का मन न ममला िो त्तववाह क्या ममला देगा? बबना त्तववाह हुए स्री-परुुष आजीवन पे्रम से रहि ेहैं। कुजत्सि भावनाओं में प णाफ ने भोर कर ठदया।

समुमरा ने िीव्र स्वर में कहा - 'नींद आई ही ककसे थी?'

समुमरा - 'क्या िमुने अभी िक उनकी चाह नहीं पाई? िमु िो इन बािों में चिरु हो।'

समुमरा - 'पहले मैं भी ऐसा ही समझिी थी पर अब माल म हुआ कक मझुे धोखा हुआ था।'

समुमरा - 'हााँ, आज लड़ने ही आई ह ाँ। हम दोनों अब इस घर में नहीं रह सकिीं।'

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समुमरा ने कफर कहा - 'िमुने जब पहले-पहल इस घर में कदम रखे थे, िभी मैं खटकी थी। मझुे उसी वक्ि यह सशंय हुआ था कक िमु्हारा यौवन और उस पर सरस स्वभाव मेरे मलए घािक होगा, इसीमलए मैंने िमु्हें अपने साथ रखना शरु ककया था। लेककन होनहार को कौन टाल सकिा था? मैं जानिी ह ाँ, िमु्हारा हृदय तनष्कपट है। अगर िमु्हें कोई न छेड़िा िो िमु जीवन-पयिं अपने व्रि पर जस्थर रहिीं। लेककन पानी में रह कर हलकोरों से बच ेरहना िमु्हारी शजक्ि के बाहर था। बे-लगंर की नाव लहरों में जस्थर नहीं रह सकिी। पड़ ेहुए धन को उठा लेने में ककसे सकंोच होिा है? मैंने अपनी आाँखों सब कुछ देख मलया है प णाफ। िमु दलुक नहीं सकिी। मैं जो कुछ कह रही ह ाँ िमु्हारे ही भले के मलए कह रही ह ाँ। अब भी अगर बच सकिी हो िो उस कुकमी का साया भी अपने ऊपर न पड़ने दो। यह न समझो कक मैं अपने मलए, अपने पहल का कााँटा तनकालने के मलए िमुसे ये बािें कर रही ह ाँ मैं जैसी िब थी वसैी ही अब ह ाँ। मेरे मलए 'जैसे कांिा घर रहे वसैे रहे त्तवदेश।' मझुे िमु्हारी चचिंा है। यह त्तपशाच िमु्हें कहीं का न रखेगा। मैं िमु्हें एक सलाह देिी ह ाँ। कहो कह ाँ, कहो न कह ाँ?'

समुमरा बोली - 'उससे िमु साफ-साफ कह दो कक वह िमुसे त्तववाह कर ले।'

समुमरा - 'त्तववाह में केवल एक बार की जग-हाँसाई है कफर कोई कुछ न कह सकेगा। इस भााँति लकु-तछप कर ममलना िो आत्मा और परलोक दोनों ही का सवफनाश कर देगा। उसके प्रेम की परीक्षा भी हो जाएगी। अगर वह त्तववाह करने पर राजी हो जाए िो समझ लेना कक उसे िमुसे सच्चा पे्रम है। नहीं िो समझ लेना उसने कामवासना की धुन में िमु्हारी आबर बबगाड़ने का तनश्चय ककया है। अगर वह इनकार करे, िो उससे कफर न बोलना न उसकी स रि देखना। मैं कहो मलख द ाँ कक वह त्तववाह करने पर कभी राजी न होगा। वह िमु्हें ख ब सब्ज-बाग ठदखाएगा, िरह-िरह के बहाने करेगा, मगर खबरदार उसकी बािों में न आना! पक्का जामलया है! रही मैं! मैंने िो मन में ठान मलया है कक लाला के मखु में कामलख पोि द ाँगी। बला से मेरी आबर जाए, बला से सवफनाश हो जाए, मगर इन्हें कहीं मुाँह ठदखाने लायक न रख ाँगी।'

समुमरा - 'िमु्हारे ड ब मरने से मेरा क्या उपकार होगा? न वह अपना स्वभाव छोड़ सकि ेहैं, न मैं अपना स्वभाव छोड़ सकिी ह ाँ। न वह पसैों को दााँि से पकड़ना छोडेंगे और न मैं पसैों को िचु्छ समझना छोड़ ाँगी। उन्हें तछछोरेपन से पे्रम है, अपने मुाँह ममयााँ ममट्ठ बनने का खब्ि। मझु ेइन बािों से घणृा है। अब िक मैंने उन्हें इिना तछछोरा न समझा था। समझिी थी, वह प्रेम कर सकि ेहैं। स्वय ंउनसे पे्रम करने की चषे्टा करिी थी, पर राि जो कुछ देखा, उसने उनकी रही-सही बाि भी ममटा दी और सारी बरुाइयााँ सह सकिी ह ाँ, ककंि ुलपंटिा का सहन करना मेरी शजक्ि के बाहर है। मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहिी ह ाँ प णाफ, िमु्हारी ओर से कोई मशकायि नहीं। िमु्हारी िरफ से मेरा ठदल बबल्कुल साफ है। बजल्क

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मझुे िमु्हारे ऊपर दया आिी है। मैंने यठद क्रोध में कोई कठोर बाि कह दी हो, िो क्षमा करना। जलि ेहुए हृदय से धुएाँ के मसवा और क्या तनकल सकिा है?'

समुमरा ने उसे उठा कर छािी से लगाि ेहुए कहा - 'मैंने िो कह ठदया बहन, कक मेरा ठदल िमु्हारी ओर से साफ है। बस, अब िो ऐसी यजुक्ि तनकालनी चाठहए कक इस ध िफ से पीछा छ टे। उसे िमु्हारी ओर िाकने का भी साहस न हो। उसे िमु अबकी कुिे की भााँति दतु्कार दो।'

समुमरा ने हाँस कर कहा - 'िो क्या िमु समझिी हो, यह धमकी सनु कर मैं भी उसके सामने मसर झकुा देिी? हजार बार नहीं! मैं साफ कहिी, जरर प्राण दे दो। कल देि ेहो िो आज ही दे दो। िमुसे न बने िो लाओ मैं मौि के घाट उिार द ाँ। इन ध िफ लपंटों का यह भी एक लटका है। इसी िरह पे्रम जिा कर ये रमखणयों पर अपना रंग जमाि ेहैं। ऐसे बेहया मरा नहीं करि।े मरि ेहैं वे, जजनमें सत्य का बल होिा है। ऐसे त्तवषय-वासना के पिुले मर जाएाँ, िो ससंार स्वगफ हो जाए। ये दषु्ट वेश्याओं के पास नहीं जाि।े वहााँ जाि ेइनकी नानी मरिी है। पहले िो वेश्या देवी भरप र प जा मलए सीधे मुाँह बाि नहीं करिी, द सरे वहााँ शहर के गुडंों का जमघट रहिा है, कहीं ककसी से मठुभेड़ हो जाए, िो लाला की हड्डी-पसली च र कर दें। ये ऐसे ही मशकार की टोह में रहि ेहैं, जहााँ न पसैे का खचफ है, न त्तपटने का भय - हरफ लगे न कफटकरी और रंग चाहें चोखा। चचकनी-चुपड़ी बािें की, प्रेम का स्वााँग भरा और बस, एक तनश्छल हृदय के स्वामी बन बठैें ।'

समुमरा ने धैयफ देि ेहुए कहा - 'िमु्हारे मलए यह कोई नई बाि नहीं है, बहन ऐसा पदाफ पड़ना कोई अनोखी बाि नहीं। मैं स्वय ंनहीं कह सकिी कक प्रेम की मीठी बािों में पड़ कर क्या कर बठैिी। यह मामला बड़ा नाजुक है बहन? धन से आदमी का जी भर जाए, पे्रम से िजृप्ि नहीं होिी। ऐसे कान बहुि कम हैं, जो पे्रम के शब्द सनु कर फ ल न उठें ।'

प णाफ ने ठहचकि ेहुए कहा - 'आप जाएाँ, मैं ककसी वक्ि चली जाऊाँ गी।'

प णाफ ने कफर समुमरा की ओर देखा, पर समुमरा अभी िक दीवार की ओर िाक रही थी। न 'हााँ' कहि ेबनिा था न 'नहीं'। प्रेमा स ेवह इधर महीनों से न ममल सकी थी। उससे ममलने के मलए चचि लालातयि हो रहा था। न जाने क्यों बलुाया है? इिनी जल्दी बलुाया है िो अवश्य कोई जररी काम होगा। रास्ि ेभर

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की बाि है, इनके साथ जाने में हरज ही क्या है? वहााँ दो-चार ठदन रहने से ठदल बहल जाएगा। इन महाशय से त्तपडं छ ट जाएगा। यह सोच कर उसने कहा - 'आप क्यों कष्ट कीजजएगा। मैं अकेली चली जाऊाँ गी।'

प णाफ अब कोई आपत्ति न कर सकी। बोली - 'िो कब जाइएगा?'

प णाफ भी चटपट ियैार हो गई। कमलाप्रसाद चला गया िो उसने समुमरा से कहा - 'इनके साथ जाने में क्या हरज है?'

यह वाक्य समुमरा ने केवल मशष्टाचार के भाव से कहा। ठदल में वह प णाफ के जाने से प्रसन्न थी। प णाफ का मन कमलाप्रसाद की ओर से फेर देने के बाद अब उसके मलए इससे बढ़ कर और कौन-सी बाि हो सकिी थी। कक उन दोनों में कुछ ठदनों के मलए त्तवच्छेद हो जाए। प णाफ अब यहााँ आने के मलए उत्सकु न होगी, और पे्रमा खुद उससे जाने को क्यों कहने लगी? उसके यहााँ रहना स्वीकार कर ले िो मुाँह-मााँगी ममल जाए। समुमरा को प णाफ के चले जाने ही में अपना उद्धार ठदखाई ठदया।'

कुछ द र िक िााँगा पररचचि मागफ से चला। वही मठंदर थे, वही द कानें थी। प णाफ की शकंा द र होने लगी, लेककन एक मोड़ पर िााँगे को घ मि ेदेख कर प णाफ को ऐसा आभास हुआ कक सीधा रास्िा छ टा जा रहा है। उसने कमलाप्रसाद से प छा - 'इधर स ेकहााँ चल रहे हो?'

प णाफ ने घबरा कर प छा - 'यह िमु मझुे कहााँ मलए चलि ेहो?'

'िमुने बगीचे का िो जजक्र भी नहीं ककया था, नहीं िो मैं कभी नहीं आिी।'

'िााँगा लौटा दो, नहीं मैं क द पड़ ाँगी।'

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प णाफ ने सशंक नेरों से कमलाप्रसाद को देखा। वह उसे तनजफन स्थान में क्यों ले आया है? क्या उसने मन में कुछ और ठानी है? नहीं, वह इिना नीच, इिना अधम नहीं हो सकिा और बगीचे पर, दस-पााँच ममनट रक जाने ही में क्या बबगड़ जाएगा? आखखर वहााँ भी िो नौकर-चाकर होंगे।'

प णाफ ने कौशल से आत्म-रक्षा करने की ठानी थी। बोली - 'प्रेमा मेरी राह देख रही होगी। इसी से जल्दी कर रही थी।'

प णाफ ने लजज्जि हो कर कहा - 'िमुने कैसे समझ मलया कक मैं िमु्हें नीच और भ्रष्ट समझिी ह ाँ?'

प णाफ के हृदय से समुमरा का जाद उिरने लगा। अजस्थरिा दबुफल आत्माओ ंका मखु्य लक्षण है। उन पर न बािों को जमि ेदेर लगिी है न ममटि।े बोली - 'वह िो सारा अपराध िमु्हारा ही बिािी हैं।'

'सकैड़ों बािें कीं, कहााँ िक कह ाँ? याद भी िो नहीं।'

'जगह िो बरुी नहीं।'

'समुमरा भी रहने पर राजी हों िब न।'

'िो मैं अकेली यहााँ कैसे रह ाँ।'

यह कहि-ेकहि ेकमलाप्रसाद ने प णाफ का हाथ पकड़ कर अपनी गदफन में डाल मलया और दोनों पे्रमामलगंन में मग्न हो गए। प णाफ जरा भी न खझझकी, अपने को छुड़ाने की जरा चेष्टा न की, ककंि ुउसके मखु पर प्रफुल्लिा का कोई चचह्न था, न अधरों पर मसु्कान की रेखा थी, न कपोलों पर गलुाब की झलक, न नयनों में अनरुाग की लामलमा। उसका मखु मरुझाया हुआ था, नीचे झुकी हुई आाँखें आाँसओु ंसे भरी हुई, सारी देह मशचथल-सी जान पड़िी थी।

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प णाफ ने ग्लातनमय स्वर में कहा - 'उदास िो नहीं ह ाँ।'

वह इसी ग ढ़ चेिना की दशा में थी कक कमलाप्रसाद ने धीरे से उसे एक कोच पर लेटा ठदया और द्वार बदं करने जा रहा था कक प णाफ ने उसके मखु की ओर देखा, और चौंक पड़ी। कमलाप्रसाद की दोनों आाँखों से चचनगाररयााँ-सी तनकल रही थीं। वह आंिररक उल्लास की ठदव्य-मधुर ज्योति न थी, यह ककसी ठहसंक पश ुकी रक्ि-क्षुधा का प्रतिबबबं था। इसमें प्रेमी की प्रदीप्ि आकांक्षा नहीं, ग्रीष्म का ठहसंा-सकंल्प था। इसमें श्रावण के श्याम मेघों की सखुद छत्तव नहीं, ग्रीष्म के मेघों का भीषण प्रवाह था। इसमें शरद ऋि ुके तनमफल जल-प्रवाह का कोमल सगंीि नहीं, पावस की प्रलयकंारी बाढ़ का भयकंर नाद था। प णाफ सहम उठी। झपट कर कोच से उठी, कमलाप्रसाद का हाथ झटके से खीचंा और द्वार खोल कर बरामदे में तनकल आई।

प णाफ ने तनभफय हो कर कहा - 'मैं घर जाऊाँ गी? िााँगा कहााँ है?'

'िााँगा लाओ, मैं जाऊाँ गी।'

'कुछ हुआ नहीं मैं यहााँ एक क्षण भर भी नहीं रहना चाहिी'

'िमु मझुे रोक नहीं सकि?े'

'िो मैं, चचल्ला कर शोर मचाऊाँ गी।'

प णाफ ने कमलाप्रसाद की ओर आग्नेय नेरों से देख कर कहा - 'कमलाप्रसाद बाब मैं हाथ जोड़ कर कहिी ह ाँ, मझुे िमु यहााँ से जाने दो, नहीं िो अच्छा न होगा। सोचो, अभी एक ममनट पहले िमु मझुसे कैसी बािें कर रहे थे? क्या िमु इिने तनलफज्ज हो कक मझु पर बलात्कार करने के मलए भी ियैार हो? लेककन िमु धोखे में हो। मैं अपना धमफ छोड़ने के पहले या िो अपने प्राण दे द ाँगी या िमु्हारे प्राण ले ल ाँगी।'

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यह कहि ेहुए कमलाप्रसाद ने एक कदम आगे रखा और चाहा कक प णाफ का हाथ पकड़ ले। प णाफ पीछे हट गई। कमलाप्रसाद और आगे बढ़ा। सहसा प णाफ ने दोनों हाथों से कुसी उठा ली और उसे कमलाप्रसाद के मुाँह पर झोंक ठदया। कुसी का एक पाया प रे जोर के साथ कमलाप्रसाद के मुाँह पर पड़ा, नाक में गहरी चोट आई और एक दााँि भी ट ट गया। कमलाप्रसाद इस झोंके से न साँभल सका। चारों खाने चचि जमीन पर चगर पड़ा। नाक से ख न जारी हो गया, उसे म छाफ आ गई। उसे इसी दशा में छोड़ कर प णाफ लपक कर बगीचे से बाहर तनकल आई। सड़क पर सन्नाटा था। प णाफ को अब अपनी जान बचाने की कफक्र थी। कहीं उसे कोई पकड़ न ले। कैदी बन कर, हथकडड़यााँ पहने हुए हजारों आदममयों के सामने जाना उसके मलए असह्य था। समय बबल्कुल न था। तछपने की कहीं जगह नहीं। एकाएक उसे एक छोटी-सी पमुलया ठदखाई दी। वह लपक कर सड़क के नीचे उिरी और उसी पमुलया में घसु गई।

इस समय उस अबला की दशा अत्यिं कारखणक थी। छािी धड़क रही थी। प्राण नहों में समाए थे। जरा भी खटका होिा, िो वह चौंक पड़िी। सड़क पर चलने वालों की परछाई नाल ेमें पड़ि ेदेख कर उसकी आाँखों में अाँधेरा-सा छा जािा। कहीं उसे पकड़ने कोई न आिा हो। अगर कोई आ गया िो, वह क्या करेगी? उसने एक ईंट अपने पास रख ली थी। इसी ईंट को वह अपने मसर पर पटक देगी। पमुलस वालों के पजंे में फाँ सने से मसर पटक कर मर जाना कहीं अच्छा था। सड़क पर आने-जाने वालों की हलचल सनुाई दे रही थी। उनकी बािें भी कभी-कभी कानों में पड़ जािी थीं। एक माली बदरीप्रसाद को खबर देने को दौड़ा गया था। एक घटें के बाद सड़क पर से एक बग्घी तनकली। माल म हुआ, बदरीप्रसाद आ गए। आपस में क्या बािें हो रही होंगी? शायद थाने में उसकी इिला की गई हो। बगीचे से एक िााँगा तनकलिा हुआ ठदखाई ठदया। शायद वह डॉक्टर होगा। चोट िो ऐसी नहीं आई लेककन बड़ ेआदममयों के मलए जरा-सी बाि बहुि हो जािी है।

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अध्याय 13 इस वक्ि प णाफ को अपनी उद्दंडिा पर पश्चािाप हुआ। उसने अगर जरा धैयफ से काम मलया होिा िो कमलाप्रसाद कभी ऐसी शरारि न करिा। कौशल से काम तनकल सकिा था, लेककन होनहार को कौन टाल सकिा है? मगर अच्छा ही हुआ। बच्चा की आदि छ ट जाएगी। भ ल कर भी ऐसी नटखटी न करेंगे। लाला ने समझा होगा औरि जाि कर ही क्या सकिी है, धमकी में आ जाएगी। यह नहीं जानि ेथे कक सभी औरिें एक-सी नहीं होिीं।

पमुलया के नीच ेजानवरों की हडडड्यााँ पड़ी हुई थीं। पड़ोस के कुिे प्रतिद्वदं्त्तवयों की छेड़-छाड़ से बचने के मलए इधर-उधर स ेहडडड्यों को ला-ला कर एकांि में रसास्वादन करि।े उनसे दगुधं आ रही थी। इधर-उधर फटे-परुाने चीवडों, आम की गठुमलयााँ, कागज के रद्दी टुकड़ ेपड़ ेहुए थे। अब िक प णाफ ने इस जघन्य दृश्य की ओर ध्यान न ठदया था। अब उन्हें देख कर उसे घणृा होने लगी। वहााँ एक क्षण रहना भी असह्य जान पड़ने लगा। पर जाए कहााँ? नाक दबाए, बठैी आने-जानेवालों की गति-प्रगति पर कान लगाए हुए थी।

अब उसके मलए कहााँ आश्रय था? एक ओर जेल की दसु्सह यरंणाएाँ थीं, द सरी ओर रोठटयों के लाले, आाँसओुं की धार और घोर प्राण-पीड़ा! ऐसे प्राणी के मलए मतृ्य ुके मसवा और कहााँ ठठकाना है?

एक ब ढे़ आदमी को देख कर वह एक वकृ्ष की आड़ में खड़ी हो गई जब ब ढ़ा तनकट आ गया और प णाफ को त्तवश्वास हो गया कक इसके सामने तनकलने में कोई भय नहीं है, िो उसने धीरे से प छा - 'बाबा, गगंा जी का रास्िा ककधर है?'

प णाफ - 'गगंा जी यहााँ से ककिनी द र हैं?'

इस दशा में दो कोस जाना प णाफ को असह्य-सा जान पड़ा। उसने सोचा, क्या ड बने के मलए गगंा ही है। यहााँ कोई िालाब या नदी न होगी? वह वहीं खड़ी रही। कुछ तनश्चय न कर सकी।

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प णाफ सहम उठी। अब िक उसने कोई कथा न गढ़ी थी, क्या बिलािी?

प णाफ ने डरि-ेडरि ेकहा- 'वहीं एक महुल्ले में जाऊाँ गी?'

प णाफ ने कोई जवाब न ठदया। उसके पास जवाब ही क्या था?

प णाफ कोई जवाब न दे सकी। वह पछिा रही थी कक नाहक इस ब ढे़ को मैंने छेड़ा।

प णाफ थर-थर कााँप रही थी। एक शब्द भी मुाँह से न तनकाल सकी।

प णाफ के मलए अब जवाब देना लाजजम हो गया। बोली - 'बाबा, मझुे घरवालों ने तनकाल ठदया है।'

'नहीं बाबा, मैं त्तवधवा ह ाँ। घरवाले मझुे रखना नहीं चाहि।े'

'नहीं बाबा, कोई नहीं है। एक नािदेार के यहााँ पड़ी थी, आज उसने भी तनकाल ठदया।'

'नहीं महाराज! सोचिी थी, राि-भर वहीं घाट पर पड़ी रह ाँगी। सवेरे ककसी जगह खाना पकाने की नौकरी कर ल ाँगी।'

बोला - 'वतनिा भवन में क्यों नहीं चली जािी?'

'वहााँ अनाथ जस्रयों का पालन ककया जािा है। कैसी ही स्री हो, वह लोग बड़ ेहषफ से उसे अपने यहााँ रख लेि ेहैं। अमिृराय बाब को दतुनया चाहे ककिना ही बदनाम करे, पर काम उन्होंने बड़ ेधमफ का ककया है।

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इस समय पचास जस्रयों से कम न होंगी। सब हाँसी-खशुी रहिी हैं। कोई मदफ अदंर नहीं जाने पािा। अमिृ बाब आप भी अदंर नहीं जाि।े ठहम्मि का धनी जवान है, सच्चा त्यागी इसी को देखा।'

ब ढे़ ने प छा - 'देर क्यों करिी हो बेटी, चलो, मैं िमु्हें वहााँ पहुाँचा द ाँ। त्तवश्वास मानो, वहााँ िमु बड़ ेआराम से रहोगी।'

'वहााँ जाने में क्या बरुाई है?'

ब ढे़ ने झुाँझला कर कहा - 'िो यह क्यों नहीं कहिी कक िमु्हारे मसर पर द सरी ही धुन सवार है।'

प णाफ ब ढे़ को जाि ेदेख कर उसके मन का भाव समझ गई। क्या अब भी वह वतनिा-भवन में जाने से इनकार कर सकिी थी? बोली - 'बाबा, िमु भी मझुे छोड़ कर चले जाओगे?

'वहााँ मझुे बाब अमिृराय के सामने िो न जाना पड़गेा?'

'अच्छे-बरेु की बाि नहीं है बाबा। मझुे उनके सामने जाि ेलज्जा आिी है।'

'नहीं बाबा, मैं नाम और पिा भी न मलखाऊाँ गी। इसीमलए िो कहिी थी कक मैं वतनिा-भवन में न जाऊाँ गी।'

जरा द र पर एक इक्का ममल गया। ब ढे़ ने उसे ठीक कर मलया। दोनों उस पर बठै कर चले।

प णाफ इस समय अपने को गगंा की लहरों में त्तवसजजफि करने जािी, िो कदाचचि इिनी दुुःखी और सशकं न होिी।

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अध्याय 14 बाब दाननाथ के स्वभाव में मध्यम न था। वह जजससे ममरिा करि ेथे, उसके दास बन जाि ेथे, उसी भााँति जजसका त्तवरोध करि ेथे, उसे ममट्टी में ममला देना चाहि ेथे। कई महीने िक वह कमलाप्रसाद के ममर बने रहे। बस, जो कुछ थे कमलाप्रसाद थे। उन्हीं के साथ घ मना, उन्हीं के साथ उठना-बठैना। अमिृराय की स रि से भी घणृा थी - उन्हीं की आलोचना करने में ठदन गजुरिा था। उनके त्तवरुद्ध व्याख्यान ठदए जाि ेथे, लेख मलखे जाि ेथे और जजस ठदन पे्रमा ने टाउन हॉल में जा कर उनके कुचक्रों को मठटयामटे कर ठदया, उस ठदन से िो वह अमिृराय के ख न के प्यासे हो रहे। पे्रमा से पहले ही ठदल साफ न था, अब िो उनके क्रोध का वारा-पार न रहा। पे्रमा से कुछ न कहा, इस त्तवषय की चचाफ िक न की। प्रेमा जवाब देने को ियैार बठैी थी, लेककन उससे बोलना-चालना छोड़ ठदया। भाई पर िो जान देि ेथे और बहन की स रि से भी बेजार बजल्क यों कठहए कक जजंदगी ही से बेजार थे। उन्होंने जजस आनदंमय जीवन की कल्पना की थी, वह दसु्सह रोग की भााँति उन्हें घमुाए डालिा था। उनकी दशा उस मनषु्य की-सी थी, जो एक घोड़ ेके रंग, रप और चाल देख कर उस पर लट्ट हो जाए, पर हाथ आ जाने पर उस पर सवार न हो सके उसकी कनौतियााँ, उसके िवेर, उसका ठहनठहनाना, उसका पााँव से जमीन खुरचना ये सारी बािें उसने पहले न देखीं थीं। अब उसके पटु्ठे पर हाथ रखि ेभी शकंा होिी है। जजस म ति फ की कल्पना करके दाननाथ एक ठदन मन में फ ल उठि ेथे, उसे अब सामने देख कर उनका चचि लशेमार भी प्रसन्न न होिा था। प्रेमा जी-जान से उनकी सेवा करिी थी, उनका मुाँह जोहा करिी थी, उन्हें प्रसन्न करने की चषे्टा ककया करिी थी, पर दाननाथ को उसकी भाव-भचंगमाओं में बनावट की गधं आिी। वह अपनी भ ल पर मन-ही-मन पछिाि ेथे और उनके भीिर की ज्वाला द्वेष का रप धारण करके अमिृराय पर मम्या दोष लगाने और उनका त्तवरोध करने में शांति लाभ करिी थी। लेककन शीघ्र ही मनस्िाप को शांि करने का यह मागफ भी उनके मलए बदं हो गया।

'सारे शहर में चचाफ हो रही है, आप कहि ेहैं, सनुी कहााँ?'

'इसकी वजह यही है कक आप आदममयों को पहचान नहीं सकि।े मझुसे खुद उन डॉक्टर साहब ने कहा, जो कमलाप्रसाद की मरहम-पट्टी करने गए थे उन्हें कमलाप्रसाद से कोई अदावि नहीं है।'

'उन्होंने साफ कहा कक कमलाप्रसाद के मुाँह और छािी में सख्ि चोट आई है और एक दााँि ट ट गया है।'

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दाननाथ को उस वक्ि िक त्तवश्वास न आया, जब िक कक उन्होंने कमलाप्रसाद के घर जा कर िहकीकाि न कर ली। कमलाप्रसाद मुाँह में पट्टी बााँधे आाँखें बदं ककए पड़ा था। ऐसा माल म होिा था, मानो गोली लग गई है। दाननाथ की आवाज सनुी िो आाँखें खोलीं और नाक मसकोड़ कर कराहि ेहुए बोला - 'आइए भाई साहब, बठैठए, क्या आपको अब खबर हुई या आने की फुरसि ही न ममली? बरेु वक्ि में कौन ककसका होिा है?'

कमलाप्रसाद ने कराह कर कहा - 'भाग्य की बाि है, भाई साहब और क्या कह ाँ? उस स्री से ऐसी आशा न थी। जब दान-ेदाने की महुिाज थी, िब अपने घर लाया। बराबर अपनी बहन समझिा रहा, जो और लोग खाि ेथे, वही वह भी खािी थी, जो और लोग पहनि ेथे, वही वह भी पहनिी थी, मगर वह भी शरओु ंसे ममली हुई थी। कई ठदन से कह रही थी कक जरा मझु ेअपने बगीचे की सरै करा दो। आज जो उसे ले कर गया िो क्या देखिा ह ाँ कक दो मसु्टंड ेबाँगले के बरामदे में खड़ ेहैं। मझुे देखि ेही दोनों ही ट ट पड़ ेअकेले मैं क्या करिा। वह त्तपशाचचनी भी उन दोनों के साथ ममल गई और मझु पर डडंों का प्रहार करने लगी। ऐसी मार पड़ी है, भाई साहब कक बस, कुछ न प तछए। वहााँ न कोई आदमी न आदमजाि; ककसे पकुारिा? जब मैं बेहोश चगर पड़ा िो िीनों वहााँ से खखसक गए।'

'भाई साहब, आदमी के भीिर क्या है, इसे ब्रह्मा भी नहीं जान सकि;े हमारी-आपकी हस्िी भी क्या है। साधुओ ंके भेष में बहुधा दषु्ट........।'

दाननाथ ने दबी जबान से प छा - 'भाई साहब का खयाल है कक अमिृराय......'

दाननाथ ने देखा कक अब स्पष्ट कहने के मसवाय और मागफ नहीं है, चाहे कमलाप्रसाद नाराज ही क्यों न हो जाए। मसर नीचा करके एक अत्तप्रय सत्य, एक कठोर किफव्य का पालन करने के भाव से बोले - 'आप बबल्कुल सत्य कहि ेहैं। उनमें यही िो एक शजक्ि है, जो उनमें कट्टर शरओुं को भी खुल्लम-खलु्ला उनके सामने नहीं आने देिी।'

यह कहि ेहुए लाला बदरीप्रसाद बाहर चले गए। दाननाथ भी उन्हीं के साथ बाहर तनकल गए। कमलाप्रसाद आाँखें बदं ककए चुपचाप सनुिा रहा। उसे भी कुल मयाफदा अपने त्तपिा ही की भााँति प्यारी थी। बेहयाई का जामा अभी िक उसने न पहना था। पे्रम के क्षेर में अभी यह उसकी पहली क्रीड़ा थी, और

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इस पहली ही क्रीड़ा में उसके पााँव में ऐसा कााँटा चुभा कक कदाचचि वह कफर इधर कदम रखने का साहस भी न कर सके। मगर दाननाथ के सामने वह फटकार न सनुना चाहिा था। लाला बदरीप्रसाद ने उसे केवल फटकार नहीं सनुाई, उसे झ ठा और दगाबाज बनाया। अपनी आत्म-रक्षा के मलए उसने जो कथा गढ़ी थी, उसका भााँडा फोड़ ठदया। क्या ससंार में कोई त्तपिा ऐसा तनदफयी हो सकिा है? उस ठदन से कमलाप्रसाद ने कफर त्तपिा से बाि न की।

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अध्याय 15 दाननाथ यहााँ से चल,े िो उनके जी में ऐसा आ रहा था कक इसी वक्ि घर-बार छोड़ कर कहीं तनकल जाऊाँ ! कमलाप्रसाद अपने साथ उन्हें भी ले ड बा था। जनिा की दृजष्ट में कमलाप्रसाद और वह अमभन्न थे। यह असभंव था कक उनमें से एक कोई काम करे और उसका यश या अपयश द सरे को न ममले। जनिा के सामने अब ककस मुाँह से खड़ ेहोंगे क्या यह उनके सावफजतनक जीवन का अिं था? क्या वह अपने को इस कलकं से पथृक कर सकि ेथ?े

घर पहुाँच कर ज्योंही वह घर में गए, पे्रमा ने प छा - 'िमुने भी भयैा के त्तवषय में कोई बाि सनुी? अभी महरी न जाने कहााँ से ऊटपटााँग बािें सनु आई है। मझु ेिो त्तवश्वास नहीं आिा।'

'िमुने भी कुछ सनुा है?'

'िो सचमचु भयैा जी प णाफ को बगीचे ले गए थ?े'

'प णाफ ने भयैा को मार कर चगरा ठदया, यह भी सच है?'

'िमुसे ककसने कहा?'

'त्तपिा जी की न प छो। वह िो भयैा पर उधार ही खाए रहि ेहैं।'

'नहीं, यह मैं नहीं कहिी; मगर भयैा में ऐसी आदि कभी न थी।'

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प्रेमा ने एक क्षण सोच कर सठंदग्ध भाव से कहा - 'मझुे अब भी त्तवश्वास नहीं आिा। प णाफ बराबर मेरे यहााँ आिी थी। वह उसकी ओर कभी आाँख उठा कर भी न देखि ेथे। इसमें जरर कोई-न-कोई पेंच है। भयैा जी को बहुि चोट िो नहीं आई।'

प्रेमा ने तिरस्कार की दृजष्ट से देख कर कहा - 'भगवान जाने, िमु बड़ ेतनदफयी हो, ककसी को त्तवपत्ति में देख कर भी िमु्हें दया नहीं आिी।'

प्रेमा को ये कठोर बािें अत्तप्रय लगीं। कदाचचि यह बाि मसद्ध होने पर उसके मन में भी ऐसे ही भाव आि,े ककंि ुइस समय उसे जान पड़ा कक केवल उसे जलाने के मलए, केवल उसका अपमान करने के मलए यह चोट की गई है। अगर इस बाि को सच भी मान मलया जाए, िो भी ऐसी जली-कटी बािें करने का प्रयोजन? क्या ये बािें ठदल में रखी जा सकिी थीं?

एक क्षण के बाद दाननाथ ने कहा - 'जी चाहिा हो, िो जा कर देख आओ। चोट िो ऐसी गहरी नहीं है, पर मक्कर ऐसा ककए हुए हैं, मानो गोली लग गई हो।'

'नहीं भाई, मैं ककसी को रोकिा नहीं। ऐसा न हो, पीछे से कहने लगो िमुने जाने न ठदया। मैं बबल्कुल नहीं रोकिा।'

'हााँ, इच्छा न होगी, मैंने कह ठदया न! मना करिा, िो जरर इच्छा होिी! मेरे कहने से छ ि लग गई।'

दाननाथ के ठदल का बखुार न तनकलने पाया। वह महीनों से अवसर खोज रहे थ ेकक एक बार पे्रमा से ख ब खुली-खुली बािें करें, पर यह अवसर उनके हाथ से तनकल गया। वह खखमसयाए हुए बाहर जाना चाहि ेथे कक सहसा उनकी मािा जी आ कर बोलीं - 'आज ससरुाल की ओर िो नहीं गए थे बेटा? कुछ गड़बड़ सनु रही ह ाँ।'

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'गप कैसी, बाजार में सनेु चली आिी ह ाँ। गगंा-ककनारे यही बाि हो रही थी। वह ब्राह्मणी वतनिा-भवन पहुाँच गई।'

'अब यह मैं क्या जान ाँ? मगर वहााँ पहुाँच गई, इसमें सदेंह नहीं। कई आदमी वहााँ पिा लगा आए। मैं कमलाप्रसाद को देखि ेही भााँप गई थी कक यह आदमी तनगाह का अच्छा नहीं है, लेककन िमु ककसकी सनुि ेथ?े'

'जजनके आाँखें हैं, वह जान ही जाि ेहैं। हााँ, िमु जैसे आदमी धोखा खा जाि ेहैं। अब शहर में िमु जजधर जाओग,े उधर उाँगमलयााँ उठेंगी। लोग िमु्हें दोषी ठहराएाँगे। वह औरि वहााँ जा कर न जाने क्या-क्या बािें बनाएगी। एक-एक बाि की सौ-सौ लगाएगी। यह मैं कभी न मान ाँगी कक पहले से कुछ सााँठ-गााँठ न थी। अगर पहले से कोई बािचीि न थी िो वह कमलाप्रसाद के साथ अकेल ेबगीचे में गई क्यों? मगर अब वह सारा अपराध कमलाप्रसाद के मसर रख कर आप तनकल जाएगी। मझुे डर है कक कहीं िमु्हें भी न घसीटे। जरा मझुसे उसकी भेंट हो जािी, िो मैं प छिी।'

प्रेमा ने उनकी ओर देखा। उसकी आाँखें लाल थीं। वह बािें, जो हृदय को मलि ेरहने पर उसके मखु से न तनकलने पािी थी, 'किफव्य और शकंा जजन्हें अदंर ही दबा देिी थी', आाँस बन कर तनकल जािी थीं। चदें वाले जलसे में जाना इिना घोर अपराध था कक क्षमा ही न ककया जा सके? वह जहााँ जाि ेहैं, जो करि ेहैं, क्या उससे प छ कर करि ेहैं? इसमें सदेंह नहीं कक त्तवद्या, बदु्चध और उम्र में उससे बढे़ हुए हैं, इसमलए वह अचधक स्विरं हैं, उन्हें उस पर तनगरानी रखने का हक है। वह अगर उसे कोई अनचुचि बाि करि ेदेखें, िो रोक सकि ेहैं। लेककन उस जलसे में जाना िो कोई अनचुचि बाि न थी। क्या कोई बाि इसीमलए अनचुचि हो जािी है कक अमिृराय का उसमें हाथ है? इनमें इिनी सहानभु ति भी नहीं, सब कुछ जान कर भी अनजान बनि ेहैं!

पे्रमा कुछ तनश्चय न कर सकी कक इस खबर पर प्रसन्न हो या खखन्न? दाननाथ ने यह बाि ककस इरादे से कही? उसका क्या आशय था, वह कुछ न जान सकी। दाननाथ कदाचचि उसका मनोभाव िाड़ गए। बोले - 'अब उसके त्तवषय में कोई चचिंा न रही। अमिृराय उसका बेड़ा पार लगा देंगे?'

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दाननाथ ने कुछ लजज्जि हो कर कहा - 'अब मझुे ऐसा जान पड़िा है कक अमिृराय पर मेरा सदेंह बबल्कुल मम्या था। मैंने आाँखें बदं करके कमलाप्रसाद की प्रत्येक बाि को वेद-वाक्य समझ मलया था। मैंने अमिृराय पर ककिना बड़ा अन्याय ककया है, इसका अनभुव अब मैं कुछ-कुछ कर सकिा ह ाँ। मैं कमलाप्रसाद की आाँखों से देखिा था। इस ध िफ ने मझुे बड़ा चकमा ठदया। न-जाने मेरी बदु्चध पर क्यों ऐसा परदा पड़ा गया कक अपने अनन्य ममर पर ऐसे सदेंह करने लगा?'

'नहीं, उनकी भ ल नहीं सरासर मेरा दोष था। मैं शीघ्र ही इसका प्रायजश्चि कराँ गा। मैं एक जलसे में सारा भडंाफोड़ कर द ाँगा। इन पाखंडडयों की कलई खोल द ाँगा।'

'जररि है- कम-से-कम अपनी इज्जि बनाने के मलए इसकी बड़ी सख्ि जररि है। मैं जनिा को ठदखा द ाँगा कक इन पाखंडडयों से मेरा मेल-ममलाप ककस ढंग का था। इस अवसर पर मौन रह जाना मेरे मलए घािक होगा। उफ! मझुे ककिना बड़ा धोखा हुआ। अब मझुे माल म हो गया कक मझुमें मनषु्यों को परखने की शजक्ि नहीं है; लेककन अब लोगों को माल म हो जाएगा कक मैं जजिना जानी दोस्ि हो सकिा ह ाँ, उिना ही जानी दशु्मन भी हो सकिा ह ाँ। जजस वक्ि कमलाप्रसाद ने उस अबला पर कुदृजष्ट डाली, अगर मैं मौज द होिा, िो अवश्य गोली मार देिा। जरा इस षडयरं को िो देखो कक बचेारी को उस बगीचे में मलवा ले गया, जहााँ ठदन को आधी राि का-सा सन्नाटा रहिा है। बहुि ही अच्छा हुआ। इससे श्रद्धा हो गई है। जी चाहिा है, जा कर उसके दशफन कराँ । मगर अभी न जाऊाँ गा। सबसे पहले इस बगलुाभगि की खबर लेनी है।'

उसने कमरे के द्वार पर आ कर कहा - 'मैं िो समझिी ह ाँ इस समय िमु्हारा चुप रह जाना ही अच्छा है। कुछ ठदनों िक लोग िमु्हें बदनाम करेंगे, पर अिं में िमु्हारा आदर करेंगे। मझुे भी यही शकंा है कक यठद िमुने भयैा जी का त्तवरोध ककया िो त्तपिा जी को बड़ा दुुःख होगा।'

प्रेमा ने प्रेम-कृिज्ञ नेरों से देखा। कंठ गद्गद् हो गया। मुाँह से एक शब्द न तनकला। पति के महान त्याग ने उसे त्तवभोर कर ठदया। उसके एक इशारे पर अपमान, तनदंा, अनादर सहने के मलए ियैार हो कर दाननाथ ने आज उसके हृदय पर अचधकार पा मलया। वह मुाँह से कुछ न बोली, पर उसका एक-एक रोम पति को आशीवाफद दे रहा था।

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त्याग ही वह शजक्ि है, जो हृदय पर त्तवजय पा सकिी है।

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अध्याय 16 दाननाथ जब अमिृराय के बाँगले के पास पहुाँच ेिो सहसा उनके कदम रुक गए, हाि ेके अदंर जाि ेहुए लज्जा आई। अमिृराय अपने मन में क्या कहेंगे? उन्हें यही खयाल होगा कक जब चारों िरफ ठोकरें खा चुके और ककसी ने साथ न ठदया, िो यहााँ दौड़ ेहैं, वह इसी सकंोच में फाटक पर खड़ ेथे कक अमिृराय का ब ढ़ा नौकर अदंर से आिा ठदखाई ठदया। दाननाथ के मलए अब वहााँ खड़ा रहना असभंव था। फाटक में दाखखल हुए। ब ढ़ा इन्हें देखि ेही झुक कर सलाम करिा हुआ बोला - 'आओ भयैा, बहुि ठदनन मााँ सचुध मलहेव। बाब रोज िमु्हार चचाफ कर-कर पछिाि रहे। िमुका देखख के फ ले न समहैें। मजे में िो रह्यो - जाए के बाब से कह देई।'

दाननाथ ने कहा- 'िमु मझुसे बहुि नाराज होगे।'

दाननाथ ने इस बाि का कुछ जवाब न दे कर कहा - 'िमु मझुे इिना बिा दो कक िमुने मझुे क्षमा कर ठदया या नहीं? मैंने िमु्हारे साथ बड़ी नीचिा की है।'

दाननाथ ने गभंीर भाव से कहा - 'यही िो मैंने सबसे बड़ी भ ल की। मैं पे्रमा के योग्य न था।'

दाननाथ - 'कभी नहीं, लेककन न जाने क्यों शादी होि ेही मैं शक्की हो गया। मझु ेबाि-बाि पर सदेंह होिा था कक पे्रमा मन में मेरी उपेक्षा करिी है। सच प छो िो मैंने उसको जलाने और रुलाने के मलए िमु्हारी तनदंा शरु की। मेरा ठदल िमु्हारी िरफ से हमेशा साफ रहा।'

दाननाथ - 'मैंने िमु्हारे ऊपर चंदे के रुपए हजम करने का इल्जाम लगाया, हालााँकक मैं कसम खाने को ियैार था कक वह सवफथा मम्या है।'

दाननाथ - 'मझुे िमु्हारे ऊपर यहााँ िक आक्षेप करने में सकंोच न हुआ कक...'

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दाननाथ - 'चल ाँगा, मगर मैं चाहिा ह ाँ, पहले िमु मेरे दोनों कान पकड़ कर ख ब जोर से खींचो और दो-चार थप्पड़ जोर-जोर से लगाओ।'

दाननाथ - 'प णाफ भी िो यहीं आ गई है! उसने उस त्तवषय में कुछ और बािें की?'

दाननाथ - 'बस दो-एक बार प्रेमा के साथ बठेै देखा है। इससे ज्यादा नहीं।'

दाननाथ - 'उसके हसीन होने में िो कोई शक ही नहीं।'

दाननाथ - 'यार िमु रीझे हुए हो, कफर क्यों नहीं ब्याह कर लेि।े मसगंल रहने का ख्याल छोड़ो। बढु़ापे में परलोक की कफक्र कर लेना। मैंने भी िो यही नक्शा ियैार कर मलया है। मेरी समझ में यह नहीं आिा कक त्तववाह को लोग क्यों सावफजतनक जीवन के मलए बाधक समझि ेहैं। अगर ईसा, शकंर और दयानदं अत्तववाठहि थे, िो राम, कृष्ण, मशव और त्तवष्ण ुगहृस्थी के जुए में जकड़ ेहुए थे।'

दाननाथ ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'मैंने कभी अत्तववाठहि जीवन को आदशफ नहीं समझा। वह आदशफ हो ही कैसे सकिा है? अस्वाभात्तवक वस्ि ुकभी आदशफ नहीं हो सकिी।'

अमिृराय - 'अच्छा भाई, मैं ही भ ल कर रहा ह ाँ। चलि ेहो कहीं? हााँ, आज िमु्हें शाम िक यहााँ रहना पड़गेा। भोजन ियैार हो रहा है। भोजन करके जरा लेटेंगे, ख ब गप-शप करेंग,े कफर शाम को दररया में बजरे का आनदं उठाएाँगे। वहााँ से लौट कर कफर भोजन करेंगे, और िब िमु्हें छुट्टी ममल जाएगी। ईश्वर ने चाहा िो आज ही पे्रमा देवी मझु ेकोसने लगेंगी।'

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अध्याय 17 दोनों ममर आश्रम की सरै करने चले। अमिृराय ने नदी के ककनारे असी-सगंम के तनकट पचास एकड़ जमीन ले ली थी। वहााँ रहि ेभी थे। अपना कैं टोमेंट वाला बाँगला बेच डाला था। आश्रम ही के हाि ेमें एक छोटा-सा मकान अपने मलए बनवा मलया था। आश्रम के द्वार पर के दोनों बाजओुं पर दो बड़-ेबड़ ेकमरे थे। एक आश्रम का दफ्िर था और द सरा आश्रम में बनी हुई चीजों का शो-रम। दफ्िर में एक अधेड़ मठहला बठैी हुई मलख रही थी। रजजस्टर आठद कायदे से आल्माररयों में चुने रखे थे इस समय अस्सी जस्रयााँ थीं और बीस बालक। उनकी हाजजरी मलखी हुई थी। शो-रम में स ि, उन, रेशम, सलमा-मसिारे, म ाँज आठद की सुदंर बेल-ब टेदार चीजें शीश ेकी दराजों में रखी हुई थीं। मसले हुए कपड़ ेभी अलगतनयों पर लटक रहे थे। ममट्टी और लकड़ी के खखलौने, मोज,े बतनयाइन, जस्रयों ही के बनाए हुए चचर अलग-अलग सजाए हुए थे। एक आलमारी में बनी हुई भााँति-भााँति की ममठाइयााँ चुनी हुई रखी थीं। आश्रम में उगे हुए पौधे गमलों में रखे हुए थे। कई दशफक इस समय भी इन चीजों को देखभाल रहे थे, कुछ बबक्री भी हो रही थी। दो मठहलाएाँ ग्राहकों को चीजें ठदखा रही थीं। यहााँ की रोजाना बबक्री सौ रुपए के लगभग थीं। माल म हुआ कक सधं्या समय ग्राहक अचधक आि ेहैं।

दाननाथ ने प छा - 'इिनी सदुक्ष जस्रयााँ िमु्हें कहााँ ममल गईं?'

बगीचा बहुि बड़ा न था। आम, अमरद, लीची आठद की कलमें लगाई जा रही थीं। हााँ, फ लों के पौधे ियैार हो गए थे। बीच में एक हौज था और िीन-चार छोटी-छोटी लड़ककयााँ हौज से पानी तनकाल-तनकाल कर क्याररयों में डाल रही थीं। हौज िक आने के मलए चारों ओर रत्तवशें बनी हुई थीं। और हरेक रत्तवश पर बेलों से ढाँके हुए बााँसों के बनेु हुए छोटे-छोटे फाटक थे। उसके साए में पत्थर की बेंचें रखी हुई थीं! प णाफ इन्हीं बेंचों में से एक पर मसर झुकाए बठैी फ लों का एक गलुदस्िा बना रही थी। ककसके मलए, यह कौन जान सकिा है?

अमिृराय ने प छा - 'कैसी िबीयि है प णाफ? यह देखो दाननाथ िमुसे ममलने आए हैं। बड़ ेउत्सकु हैं।'

दाननाथ - 'वह िो कई बार िमुसे ममलने के मलए कहिी थीं, पर सकंोच के मारे न आ सकीं। िमुने गलुदस्िा िो बहुि सुदंर बनाया है।'

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प णाफ - 'यह झ ठ बोलिी है। यहााँ मठंदर कहााँ है?'

अमिृराय ने बामलका का हाथ पकड़ कर कहा - 'कहााँ मठंदर बनाया है, चलो देखें।' िीनों बामलकाएाँ आग-ेआगे चलीं। उनके पीछे दोनों ममर थे और सबके पीछे प णाफ धीरे-धीरे चल रही थी।

अमिृराय बोले - 'अब मझुे यहााँ एक मठंदर बनवाने की जररि माल म हो रही है।'

अमिृराय जरा देर ककसी त्तवचार में मग्न खड़ ेरहे। सहसा उनके नेर सजल हो गए, पलुककि कंठ से बोले - 'प णाफ, िमु्हारी बदौलि आज हम लोगों को भी भजक्ि की एक झलक ममल गई। अब हम तनत्य कृष्ण भगवान के दशफनों को आया करेंगे। उनकी प जा का कौन-सा समय है?'

दाननाथ ने आश्वासन ठदया कक प्रेमा कल अवश्य आएगी! दोनों ममर यहााँ से चल ेिो सहसा िीन बजने की आवाज आई। दाननाथ ने चौंक कर कहा - 'अरे! िीन बज गए। इिनी जल्द?'

दाननाथ - 'चलो अच्छा ही हुआ िमु्हारा एक वक्ि का खाना बच गया।'

दाननाथ - 'हााँ साहब, आपके पचास से िो कम न बबगड़ ेहोंगे। मैं बबना भोजन ककए ही मानने को ियैार ह ाँ। है रसोइया भी होमशयार। ख ब मसखाया है।'

घर जा कर अमिृराय ने रसोइए को ख ब डााँटा - 'िमुने क्यों इिला की कक भोजन ियैार है?'

बाि ठीक थी। अमिृराय रसोइए को कई बार मना कर चुके थे कक मैं जब ककसी के साथ रहा कराँ , िो मसर पर मि सवार हो जाया करो। रसोइए का कोई दोष न था। बेचारे बहुि झेंपे। भोजन आया। दोनों ममरों ने खाना शरु ककया। भोजन तनराममष था, पर बहुि ही स्वाठदष्ट।

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अमिृराय - 'क्यों भाई?'

अमिृराय - 'जी नहीं, मैं िो उन ब्रह्माचाररयों में नहीं ह ाँ। पजुष्टकारक और स्वाठदष्ट भोजन को मैं मन और बदु्चध के मलए आवश्यक समझिा ह ाँ। दबुफल शरीर में स्वस्थ मन नहीं रह सकिा! िारीफ जानदार घोड़ ेपर सवार होने में है! उसे इच्छानसुार दौड़ा सकि ेहो। मररयल घोड़ ेपर सवार हो कर अगर िमु चगरने से बच ही गए िो क्या बड़ा काम ककया?'

सांध्य समीर मदं गति से चल रहा था, और जरा हल्की-हल्की लहरों पर चथरकिा हुआ चला जािा था। अमिृराय डााँड़ मलए बजरे को खे रहे थे और दाननाथ िख्ि ेपर पााँव फैलाए लेटे हुए थे। गगंादेवी भी सनुहले आभ षण पहने मधुर स्वरों में गा रही थीं। आश्रम का त्तवशाल भवन स यफदेव के आशीवाफद में नहाया हुआ खड़ा था।

अमिृराय ने प छा - 'ककस त्तवषय में?'

अमिृराय - 'मेरी शादी की चचिंा में िमु क्यों पड़ ेहुए हो?'

अमिृराय - 'मैं अपनी प्रतिज्ञा प री कर चुका।'

अमिृराय - 'नहीं, सच!'

अमिृराय - 'कर चुका, सच कहिा ह ाँ।'

अमिृराय - 'जी नहीं, ख ब ढोल बजा कर ककया और स्री भी ऐसी पाई, जजस पर सारा देश मोठहि है?'

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अमिृराय - 'जी हााँ, अप्सराओं से भी सुदंर?'

अमिृराय - 'िमु मानि ेही नहीं िो मैं क्या कराँ । मेरा त्तववाह हो गया है।'

अमिृराय - 'यहीं बनारस में।'

अमिृराय - 'जी नहीं, हमारे, िमु्हारे और ससंार के सामने।'

अमिृराय - 'अभी देख ेचल ेआि ेहो और अब भी देख रहे हो।'

अमिृराय - 'प णाफ को मैं अपनी बहन समझिा ह ाँ?'

अमिृराय - 'घटंों िक ठदखािा रहा, अब और कैसे ठदखािा। अब भी ठदखा रहा ह ाँ वह देखो ऐसी सुदंरी िमुने और कहीं देखी है? मैं ऐसी-ऐसी और कई जानें उस पर भेंट कर सकिा ह ाँ।'

अमिृराय - 'इसके साथ मेरा जीवन बड़ ेआनदं से कट जाएगा। यह एक पत्नीव्रि का समय है। बहु-त्तववाह के ठदन गए।'

अमिृ के हाथ रुक गए। उन्हें डााँड़ चलाने की सचुध न रही। बोले - 'यह िमु्हें उसी वक्ि समझ लेना चाठहए था, जब मैंने प्रमेा की उपासना छोड़ी। पे्रमा समझ गई थी। चाहे प छ लेना।

पृ् वी ने श्यामवेश धारण कर मलया था और बजरा लहरों पर चथरकिा हुआ चला जािा था। उसी बजरे की भााँति अमिृराय का हृदय भी आदंोमलि हो रहा था, दाननाथ तनस्पदं बठेै हुए थे, मानो वज्राहि हो गए हों। सहसा उन्होंने कहा - 'भयैा, िमुने मझुे धोखा ठदया।'